गुरु ने दी गुरुमुखी
द्वितीय गुरु अंगद देव जी ने आत्मिक उन्नति के लिए शिक्षा का महत्व समझाया और गुरुमुखी लिपि की रचना की, वहीं नवम गुरु तेग बहादुर जी ने त्याग का उदाहरण प्रस्तुत किया। आज इन दोनों महान गुरुओं की जयंती है..
समर्पण, विनम्रता और शिक्षा जीवन को किस तरह संवारते हैं, यह द्वितीय गुरु अंगद देव जी की जीवन गाथा से सीखा जा सकता है। उन्होंने ही गुरुमुखी लिपि की रचना की थी। 5 बैशाख संवत 1561 विक्रमी अर्थात 18 अप्रैल 1504 ई. को फिरोजपुर के गांव मत्ते नांगे की सराय में जन्मे अंगद देव जी का बचपन में नाम लहिणा था। वर्ष 1532 ई. में वैष्णो देवी के दर्शनों से लौटते हुए करतारपुर साहिब में उनकी भेंट गुरु नानक देव जी से हुई। उसके बाद वे गुरु में इतना रम गए कि अपने घर की समृद्धि छोड़कर करतारपुर आकर बस गए।
वर्ष 1539 तक लहिणा ने आज्ञाकारी शिष्य के रूप में गुरु नानक देव जी की सेवा की। समृद्ध परिवार से होने के बावजूद उन्होंने सभी कार्य किए। कीचड़ से लथपथ घास का गट्ठर उठाना, गंदे नाले में से गुरु जी की कटोरी निकालना, मरी हुई चुहिया उठाना, रात को नदी से वस्त्र धोकर लाना जैसे कुछ प्रसंग प्रसिद्ध हैं, जो उनके सेवाभाव को दर्शाते हैं।
प्रसंग है कि एक बार सर्दियों की रात में गुरु नानक देव जी की कोठरी की दीवार ढह गई। गुरु जी ने सिखों से दीवार बनाने को कहा। सबने उत्तर दिया- सुबह देखा जाएगा, पर लहिणा दीवार बनाने में जुट गए। गुरु जी ने चार बार दीवार बनवा कर गिरवाई। माता सुलखनी से न रहा गया, उन्होंने लहिणा से पूछा कि ऐसा कब तक करता रहेगा? तो भाई लहिणा ने उत्तर दिया- माता, मेरा काम गुरु जी के आदेश का पालन करना है, दीवार बनने या न बनने से मुझे कोई मतलब नहीं। उनके सेवा भाव से प्रसन्न होकर गुरु नानक देव जी ने उन्हें गले से लगाकर कहा-कि तू मेरे अंग जैसा प्यारा है, इसलिए आज से तेरा नाम अंगद हुआ।
गुरु अंगद देव जी का मत था कि मनुष्य की मानसिक उन्नति श्रेष्ठ शिक्षा के माध्यम से ही हो सकती है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने गुरुवाणी संकलन एवं सिख इतिहास-लेखन की परंपरा शुरू की। कई संतों-भक्तों की वाणियों का संचयन कर उन्होंने सैंचियां और गुटके (ग्रंथ) तैयार करवाए। पंजाबी में लेखन के लिए उन्होंने गुरुमुखी लिपि की रचना की।
भोजन मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता है, जिसकी पूर्ति सबसे पहले होनी आनिवार्य है। इसीलिए देग तेग फतह के सिद्धांत को गुरु अंगद देव जी ने व्यावहारिक रूप दिया। इसमें देग (भोजन का बर्तन) को तेग (तलवार) से पहले फतह (जीत) करने की बात की गई। शारीरिक विकास के लिए गुरु जी ने अखाड़ों की स्थापना की। उन्होंने आत्मिक व शारीरिक उन्नति का ऐसा मार्ग उपलब्ध कराया, जो संपूर्ण जीवन जीने की दिशा में प्रेरित करता है। गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज गुरु जी के 62 श्लोक इसी जीवन-आदर्श को प्रतिबिंबित करते हैं।
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