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कुंभ में अमृतपान

अमृत-कुंभ उसे ही मिलता है, जिसमें सद्गुण रूपी देवत्व होता है। यह बोध कराता प्रयाग कुंभ 14 जनवरी को मकर संक्रांति से शुरू हो गया है। 12 वर्ष बाद आ रहे इस कुंभ महापर्व के महत्व और माहात्म्य पर प्रकाश

By Edited By: Published: Sat, 19 Jan 2013 12:05 PM (IST)Updated: Sat, 19 Jan 2013 12:05 PM (IST)

मान्यता है कि समुद्र-मंथन में अमृत-कुंभ के लिए देवताओं और राक्षसों में हुई खींचतान से कुछ तीर्थो में अमृत गिर जाने से वहां कुंभ आयोजित होता है। कुंभ वास्तव में उसी अमृत कुंभ की याद दिलाता है। आज भी हर व्यक्ति अमृत-कुंभ के लिए खींचतान कर रहा है, लेकिन यह याद रखना चाहिए कि अमृत उसे ही मिलता है, जिसमें देवत्व वाले गुण होते हैं। अच्छे गुणों को ही देवत्व कहते हैं और अमृत वह है, जिसमें मरण नहीं, बल्किमोक्ष मिलता है।

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इस वर्ष मकर-संक्रांति के दिन से तीर्थराज प्रयाग में पूर्णकुंभ महापर्व का पर्वकाल प्रारंभ हो गया है। 14 जनवरी को मकर-संक्रांति के दिन प्रथम शाही स्नान के साथ प्रयाग महाकुंभ-स्नान का शुभारंभ हुआ, जो 10 मार्च को महाशिवरात्रि तक चलेगा। साधु-संत, महात्मा तथा असंख्य श्रद्धालु उत्साह के साथ प्रयाग महाकुंभ में भाग लेकर इस महापर्व का आध्यात्मिक लाभ उठाते हैं।

शास्त्रों में कुंभ पर्व की महिमा का गुण-गान करते हुए इसके स्नान को समस्त पापों का नाशक एवं अनंत पुण्यदायक बताया गया है। स्कंद पुराण कहता है-

सहश्चं कार्तिके स्नानं माघे स्नानशतानि च।

वैशाखे नर्मदा कोटि: कुंभस्नानेन तत्फलम्॥

अर्थात एक हजार बार कार्तिक मास में गंगा में स्नान करने से, सौ बार माघ में संगम-स्नान करने से, वैशाख में एक करोड़ बार नर्मदा-स्नान करने से जो पुण्यफल अर्जित होता है, वह महाकुंभ में केवल एक बार स्नान करने से प्राप्त हो जाता है। विष्णु पुराण में भी कुंभ-स्नान की प्रशंसा में कहा गया है-अश्वमेधसहश्चाणि वाजपेयशतानि च। लक्षं प्रदक्षिणा भूमे: कुंभस्नानेन तत्फलम्॥ यानी हजार बार अश्वमेध-यज्ञ करने से, सौ बार वाजपेय-यज्ञ करने से और लाख बार पृथ्वी की परिक्रमा करने से जितनी पुण्यराशि संचित होती है, उतनी कुंभ में एक बार स्नान करने से प्राप्त होती है।

कुंभ-पर्व का वेदों में उल्लेख मिलने से इसकी प्राचीनता का पता चलता है। ऋग्वेद (10-89-7), शुक्लयजुर्वेद (19-87), अथर्ववेद (4-34-7, 16-6-8 एवं 19-53-3) की ऋचाएं कुंभ-पर्व पर पर्याप्त प्रकाश डालती हैं। पुराणों में इस संदर्भ में जो कथाएं मिलती हैं, उनका सार-संक्षेप यह है कि पूर्वकाल में देवताओं और दानवों ने मिलकर जब समुद्र-मंथन किया, तब 14 दुर्लभ रत्न प्रकट हुए। अमृत से भरा कुंभ (घट) उनमें से एक था। देवराज इंद्र के पुत्र जयंत अमृतकुंभ को लेकर आकाश में उड़ गए, तो दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आदेश पर दानवों ने उनका पीछा किया और अमृतकुंभ को छीनने का बड़ा प्रयत्न किया। देवों और असुरों में 12 दिव्य दिनों (मनुष्यों के 12 वर्ष) तक यह संघर्ष चला। इस अवधि में अमृत से भरे कुंभ (कलश) को दैत्यों से बचाने में सूर्यनारायण, चंद्रदेव और देवगुरु बृहस्पति ने विशेष योगदान दिया, लेकिन प्रयाग, हरिद्वार, उज्जयिनी और नासिक-इन चार स्थानों पर कुछ अमृत-बिंदु गिर गए। इसीलिए सूर्य, चंद्र एवं गुरु के विशेष संयोग से हर बारहवें वर्ष पूर्वोक्त चार स्थानों पर कुंभ का दुर्लभ योग बनता है।

भारतीय ज्योतिष के अनुसार, मकर राशि में सूर्य और चंद्र की युति तथा वृष राशि में बृहस्पति की उपस्थिति से प्रयाग में कुंभयोग बनता है। यह ग्रह-स्थिति माघ मास की अमावस्या के दिन बनती है। यह संयोग पूर्णकुंभ (महाकुंभ) का योग बनाता हैं। इस वर्ष यह ग्रहयोग मुख्यत: 10 फरवरी को बन रहा है। मान्यता है कि कुंभ-योग में निर्धारित तीर्थ (इस वर्ष प्रयागराज) में स्नान करने से संचित पाप (बुरे कर्म) की प्रवृत्ति नष्ट हो जाते हैं तथा तन-मन पूर्णरूपेण पवित्र हो जाता है। कुंभ-पर्व में साधु-संत और सद्गृहस्थ, दोनों बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं। स्नान करने के पश्चात लोग कुंभक्षेत्र में अन्न, वस्त्र, धन या कलश में शुद्घ घी भरकर दान करते हैं। संपन्न व्यक्ति अपनी साम‌र्थ्य के अनुसार दान-पुण्य करते हैं। संतों-महात्माओं के सत्संग का सुअवसर भी कुंभ मेले में प्राप्त होता है। कुंभ में एकत्रित महात्मा और विद्वान जनहित एवं लोक-कल्याण हेतु परस्पर विचार-विमर्श करते हैं।

मकर-संक्रांति से उत्तरायण होकर सूर्यदेव हमें तीर्थराज प्रयाग में अमृत-सेवन हेतु कुंभ में स्नान के लिए प्रेरित करेंगे। लोगों की यह अनुभूति भी है कि कुंभ-स्नान करने से आध्यात्मिक लाभ प्राप्त होता है। चूंकि देवों को ही अमृत कुंभ का लाभ मिला था, इसलिए हमें कुंभ यह पाठ भी सिखाता है कि जब हमारे भीतर सद्गुणों का देवत्व उत्पन्न होगा, तभी महाकुंभ का स्नान भी सार्थक होगा।

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