आत्म तत्व ही परमात्मा है
जैन धर्म के प्रवर्तक प्रथम तीर्र्थकर ऋषभदेव जी ने असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प, इन छह कर्मो के द्वारा जहां समाज को विकास का मार्ग सुझाया, वहीं अहिंसा, संयम तथा तप के उपदेश द्वारा समाज की आंतरिक चेतना को भी जगाया। ऋषभदेव जयंती
भारतीय दर्शन और जैन परंपरा के अनुसार, काल का न आदि है, न अंत। इतिहास का आलोक तो काल पर ही आधारित है। काल का जो भाग इतिहास की पकड़ में नहीं आता, उसे हम प्रागैतिहासिक काल कह देते हैं। उसी काल के शलाका पुरुष हैं- ऋषभदेव जी, जो आज भी भारत की संपूर्ण भारतीयता में पूर्णत: सुरक्षित हैं। जन-जन की आस्था के केंद्र प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी के बारे में मान्यता है कि उनका जन्म चैत्र कृष्ण नवमी को अयोध्या में हुआ था तथा माघ कृष्ण चतुर्दशी को इनका निर्वाण कैलाश पर्वत से हुआ। आचार्य जिनसेन के आदि पुराण में प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव के जीवन चरित का विस्तार से वर्णन है। भागवत पुराण में उन्हें भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों में से एक माना गया है। मान्यता है कि वे आग्नीघ्र राजा नाभि के पुत्र थे और उनकी माता का नाम मरुदेवी था। उन्हें इक्ष्वाकुवंशी और कोसलराज माना जाता है।
जैन संस्कृति के अनुयायी तीर्थकर ऋषभदेव को अपना प्रवर्तक तथा प्रथम तीर्थंकर मानकर पूजा करते ही हैं, किंतु श्रीमद्भागवत यह भी कहता है कि भगवान विष्णु ने वातरशना ब्रह्मचारी ऋषियों को धर्म का उपदेश देने के लिए मरुदेवी के गर्भ से ऋषभदेव के रूप में जन्म लिया - नाभे: प्रियचिकीर्षया। तदवरोधायने मेरूदेव्यां धर्मान्दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषिणां ऊर्ध्वमन्थिनां शुक्लया तनुवावततारा (श्रीमद्भागवत 5/3/20)। श्रीमद्भागवत के पांचवें स्कंध के पांचवें अध्याय में उस उपदेश का विस्तार से वर्णन है, जिसे ऋषभदेव जी ने दिया था।
मनुष्य के अस्तित्व के लिए रोटी, कपड़ा और मकान जैसे पदार्थ आवश्यक हैं, किंतु उसकी आंतरिक संपन्नता केवल इतने से ही नहीं हो जाती। उसमें अहिंसा, सत्य, संयम, समता, साधना और तप के आध्यात्मिक मूल्य भी जुड़ने चाहिए। ऋषभदेव ने असि (आत्मरक्षा), मसि (लेखन), कृषि (खेती), विद्या (शिक्षा), वाणिज्य (व्यवसाय) और शिल्प, इन छह कर्मों के द्वारा जहां समाज को विकास का मार्ग सुझाया, वहीं अहिंसा, संयम तथा तप के उपदेश द्वारा समाज की आंतरिक चेतना को भी जाग्रत किया। इस प्रकार भारतीय संस्कृति को उनका अवदान एकांगी न होकर सर्वांगीण और चतुर्मुखी है। भारतीय संस्कृति के आंतरिक पक्ष को जो योगदान उन्होंने दिया, उसकी चर्चा संसार का प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद इन शब्दों में करता है- त्रिधा बद्धोवृषभोरोरवीति महादेवोमत्यां आ विवेश॥ इस मंत्रांश का शब्दार्थ है- तीन स्थानों से बंधे हुए वृषभ ने बारंबार घोषणा की कि महादेव मनुष्यों में ही प्रविष्ट हैं। यह घोषणा आत्मा (आत्म-तत्व) को ही परमात्मा (ईश्वर) बनाने की घोषणा है। आत्मा में परमात्मा के दर्शन करने के लिए मन, वचन, काय का संयम आवश्यक है। यह त्रिगुप्ति ही वृषभ का तीन स्थानों पर संयमित होना है। आत्मा ही परमात्मा है, यह घोषणा भारतीय संस्कृति को विश्व के उस दर्शन से अलग करती है, जिसमें कहा गया है कि जीव कभी परमात्मा नहीं हो सकता। किंतु भारतीय चिंतन में जो आत्मा है, वही परमात्मा है- अप्पा सो परमप्पा। अर्थात हर व्यक्ति में आत्मा के रूप में ईश्वर विद्यमान हैं।
ऋषभदेव का यह स्वर केवल जैन धर्मावलंबियों तक सीमित नहीं रहा, अपितु पूरे भारतीय चिंतन में व्याप्त हो गया। उपनिषदों ने भी कहा, अयम् आत्मा ब्रह्म। वेदांत ने तो इतना भी कह दिया कि सब शास्त्रों का सार यही है कि जीव ही ब्रह्म है- जीवो ब्रह्मैवनापर:। यदि दर्शन के क्षेत्र में भारतीय संस्कृति को अन्य संस्कृति से अलग करने वाला दर्शन खोजा जाए तो वह है- आत्मा-परमात्मा की एकता। इस तथ्य के अन्वेषण में ऋषभदेव का महत्वपूर्ण योगदान है।
मान्यता है कि ऋषभदेव जी के दर्शन और उनके महान कार्र्यो पर भारतीय लोगों पर इतना प्रभाव पड़ा कि उनके ज्येष्ठ चक्रवर्ती पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष कर दिया गया - भरताद्भारतं वर्षम्। भारतीय संस्कृति में ऋषभदेव को वैदिक संस्कृति तथा श्रमण संस्कृति दोनों में समान महत्व प्राप्त है। आज आवश्यकता है कि प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव जी की जयंती को न सिर्फ मनाएं, बल्कि उनके संदेशों को भी आत्मसात करें।
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