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चलने के लिए जरूरी है ठहराव

शरीर को निरंतर चलाने के लिए मन का ठहराव जरूरी है। शरीर कभी नहीं ठहरता। यह सोते-जागते और आराम की अवस्था में भी गतिशील रहता है। अत: ठहराव शरीर का नहीं, मन का होता है। जब मन तेज या गलत दिशा में भागता है, तब ठहराव की जरूरत होती है..

By Edited By: Published: Sat, 28 Apr 2012 05:00 PM (IST)Updated: Sat, 28 Apr 2012 05:00 PM (IST)

कहा जाता है कि जीवन चलने का नाम है अत: चलते रहो। निरंतर आगे बढ़ना ही जीवन है, रुकना मृत्यु। लेकिन निरंतर चलने के लिए एक चीज और भी है जो अत्यंत महत्वपूर्ण है और वह है रुकना। निरंतर चलते रहने के लिए रुकना भी अनिवार्य है। ऊपर कहा गया है कि रुकना मृत्यु है तथा बाद में कहा गया है कि आगे बढ़ने के लिए रुकना जरूरी है। थोड़ा विरोधाभास दिखलाई पड़ रहा है पर है नहीं।

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चलना वस्तुत: दो प्रकार का होता है। एक शरीर का गति करना और दूसरा मन का। मन शरीर को चलाता है, उसे नियंत्रित करता है। आध्यात्मिक दृष्टि से उसकी गति को नियंत्रित करना भी अनिवार्य है।

रुकने का एक अर्थ भौतिक शरीर की गति अर्थात् कर्म से मुंह मोड़ना है, लेकिन दूसरे रुकने का अर्थ मन की गति को विराम देना है। मन जो अत्यंत चंचल है, उसको नियंत्रित करना है। उसको सही दिशा में ले जाने के लिए उसको रोकना अनिवार्य है।

चलना जीवन है, तो रुकना पुनर्जन्म। जब मन रुक जाता है, तो वह पुनर्निर्माण में सहायक होता है। उपयोगी सृजन का कारण बनता है। भौतिक शरीर अथवा स्थूल शरीर को निरंतर चलाने के लिए कारण-शरीर अर्थात मन का ठहराव जरूरी है। भौतिक शरीर कभी नहीं ठहरता। सोते-जागते अथवा आराम की अवस्था में भी गतिशील रहता है। अत: ठहराव शरीर का नहीं, मन का होता है। जब मन तेज भागता है या गलत दिशा में दौड़ता है, तो ठहराव की जरूरत होती है। नकारात्मक मन शरीर की गति को बाधित करता है। अनेक रोगों से भर देता है। सकारात्मक मन शरीर का पोषण करता है। उसकी रोगों से रक्षा कर आरोग्य प्रदान करता है। सकारात्मक मन को नहीं, बल्कि नकारात्मक मन को ठहराना है।

कीचड़युक्त पानी जब स्थिर हो जाता है, तो उसमें घुली मिट्टी नीचे बैठ जाती है और स्वच्छ पानी ऊपर तैरने लगता है। मन को रोकने पर भी यही होता है। सकारात्मक उपयोगी विचार प्रभावी होकर पूर्णता को प्राप्त होते हैं और जीवन को एक सार्थक गति मिलती है। कार्य करता है हमारा शरीर, लेकिन उसे चलाता है हमारा मस्तिष्क और मस्तिष्क को चलाने वाला है मन। मन की उचित गति के अभाव में न तो मस्तिष्क ही सही कार्य करेगा और न ही शरीर। इसलिए शरीर को सही गति प्रदान के लिए मन को रोकना और उसे सकारात्मकता प्रदान करना अनिवार्य है।

जब बुद्ध और अंगुलिमाल का आमना-सामना हुआ, तो दोनों तरफ से ठहरने की बात होती है। अंगुलिमाल कड़ककर बुद्ध से कहता है, ठहर जा। बुद्ध अत्यंत शांत भाव से कहते हैं, मैं तो ठहर गया हूं, पर तू कब ठहरेगा? एक आश्चर्य घटित होता है। बुद्ध की शांत मुद्रा सारे परिवेश को शांत-स्थिर कर देती है। उस असीम शांति में अंगुलिमाल भी आप्लावित हो जाता है। वह ठहर जाता है और दस्युवृत्ति त्यागकर बुद्ध की शरण में आ जाता है। शरीर और मन की गति में अंतर होना ही सब प्रकार की समस्याओं का मूल है। शरीर और मन की गति में सामंजस्य होना अनिवार्य है। रेलगाड़ी के डिब्बे तभी अपने गंतव्य तक पहुंच पाते हैं, जब वे इंजन के साथ-साथ चलते हैं। इंजन और डिब्बों की गति समान होना तथा उनमें एक लय होना जरूरी है। इसी प्रकार शरीर और मन में भी संतुलन और लयात्मकता होना अनिवार्य है। मन भागा जा रहा है, लेकिन शरीर उसका साथ नहीं दे पा रहा है, तो समस्या खड़ी हो जाएगी। इंजन भागा जा रहा है पर उसकी गति इतनी तेज है कि डिब्बे या तो उछल रहे हैं और पटरी से उतरने की अवस्था आने वाली है या उनके बीच की कड़ी टूटने वाली है। इंजन की गति को नियंत्रित कर इंजन और डिब्बों के बीच की कड़ी को टूटने से बचाना है।

डिब्बे ही नहीं, उनमें बैठे यात्री भी इस गति से प्रभावित होते हैं। क्या तेज गति से दौड़ते इंजन वाली रेलगाड़ी के डिब्बों में बैठे यात्री सुरक्षित रह सकते हैं? शायद नहीं। इसलिए इंजन तथा इंजन रूपी मन दोनों की गति में ठहराव लाकर नियंत्रण करना जरूरी है। जीवन में भाग-दौड़ का एक ही उद्देश्य है-आनंद की प्राप्ति, लेकिन जितना हम भाग-दौड़ करते हैं, आनंद से दूर होते चले जाते हैं। आनंद के लिए जीवन की गति तथा विचारों के प्रवाह को नियंत्रित कर उन्हें संतुलित करना जरूरी है। यही आध्यात्मिकता हमें सहज होना सिखाती है। हम सहज होकर अपने वास्तविक स्व अर्थात चेतना से जुड़ते हैं। आत्मा में स्थित हो पाते हैं। यही वास्तविक आनंद अथवा परमानंद है।

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