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हिंदवी के दीवाने महाकवि अमीर खुसरो

<p>खडी बोली हिन्दी के प्रथम महाकवि अमीर खुसरी ने जिस मुक्त कंठ से हिंद और हिंदवी- हिंदी- का यश-गान किया है, उस पर न केवल हिंदी भाषियों अपितु पूरे हिन्दुस्तान को गर्व होना चाहिए। किंतु हिंदी साहित्य इतिहास के वरेण्य आचार्य, रामचंद्र शुक्ल जी ने उन्हें अपने इतिहास के फुटकल रचनाएं के खाते में क्या डाला- वे फुटकल- से ही साहित्य- खाते में डाले जाते रहे। </p>

By Edited By: Published: Mon, 16 Jul 2012 07:04 PM (IST)Updated: Mon, 16 Jul 2012 07:04 PM (IST)
हिंदवी के दीवाने महाकवि अमीर खुसरो

[डा. पुष्पपाल सिंह]। खडी बोली हिन्दी के प्रथम महाकवि अमीर खुसरी ने जिस मुक्त कंठ से हिंद और हिंदवी- हिंदी- का यश-गान किया है, उस पर न केवल हिंदी भाषियों अपितु पूरे हिन्दुस्तान को गर्व होना चाहिए। किंतु हिंदी साहित्य इतिहास के वरेण्य आचार्य, रामचंद्र शुक्ल जी ने उन्हें अपने इतिहास के फुटकल रचनाएं के खाते में क्या डाला- वे फुटकल- से ही साहित्य- खाते में डाले जाते रहे। यद्यपि आचार्य शुक्ल ने उन्हें आदिकाल के फुटकल खाते में किसी तरह कमतर मानकर नहीं डाला था, अपभ्रंश काल और देशभाषा काव्य श्रेणियों में वे कहीं खप नहीं पा रहे थे तो उन्हें विद्यापति के साथ लोकभाषा पद्य के शीर्षक के साथ सगर्व रखा गया था, उनके प्रदेय का उचित सम्मान करते हुए। किन्तु बाद में लिखे गए हिन्दी साहित्य के इतिहास ने उन पर खास तवज्जो न देकर उन्हें चलताऊ- सा ही मान लिया- केवल पहेलियों, मुकरियों आदि के उल्लेख के साथ उनकी चर्चा की जाती रही। उनके प्राय: दो सौ वर्ष पश्चात् कबीर ने संसकिरत को कूपजल मानते हुए भाषा के जिस बहते नीर की बात की थी, उसी जनभाषा के प्रथम महाकवि अमीर खुसरो थे। उन्होंने फारसी के साथ-साथ उस समय दिल्ली और उसके आसपास पल्लवित होती लोकभाषा में अपनी कविता रची थी। सभी प्रकार की चुनौतियों का सामना करते हुए प्रथम बार अपनी काव्य-भाषा के लिए जन-भाषा को अपनाना- खुसरो का बडा दूरदर्शी पग था जिसमें वे भाषा का भविष्य देख रहे थे। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल भी उनके इस अवदान को स्वीकार करते हैं, किन्तु बहुत मुखर होकर नहीं और केवल इस टिप्पणी के साथ उनकी पहेलियों, दोहों और गीतों के नमूने पेश कर देते हैं, ..अत: यही धारणा होती है कि खुसरो के समय में बोलचाल की स्वाभाविक भाषा घिसकर बहुत कुछ उसी रूप में आ गयी थी जिस रूप में खुसरो में मिलती है। वस्तुत: खुसरो तो हिंदवी के दीवाने थे जिसके गौरव में उन्होंने कई पद फारसी अरबी में भी लिखे हैं:-

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चू मन तूती-ए-हिन्दम् अर रास्ते पुरसी।

ज मन हिंदवी पुर्स ता नग्ज गोयम्॥

उनकी पैतृक भाषा तुर्की थी, उस पर भी हिन्दी को प्राथमिकता देते हुए उन्होंने लिखा-

इस्बात मुफ्त हिंद ब हुज्जत कि सनेह अस्त।

बर पारसी व तुर्की अज अल्फाजे खुश गवार॥

वस्तुत: वे जितना गर्व अपनी फारसी पर करते थे, उतना ही हिंदी (हिंदवी) पर। अमीर खुसरो ने अपनी गद्य और पद्य रचनाओं में अपनी मातृभाषा को हिंदवी कहा है। अपनी मसनवी कृति नुह-सिप्हर में उन्हें अपने समय की 12 हिंदुस्तानी भाषाओं की सूची प्रस्तुत की है- 1. सिंधी, 2. लाहौरी, 3. कश्मीरी, 4. कन्नड, 5. धुरसमुद्री (तमिल), 6. तिलंगी (तेलुगु), 7. गुजर (गुजराती), 8. माबरी (घाटी), 9. गोरी (पहाडी), 10. बंगाली, 11. अवध (अवधी), 12. दिल्ली तथा उसके आसपास- अंदर हुआ हद। इन सब भाषाओं को वे हिंदवी कहते हैं और वे बारहवीं श्रेणी देहलवी हिंदवी के ही कवि थे, इसे वे दिल्ली तथा आसपास की भाषा बताते हैं, वह हिंदी जो बोलचाल की भाषा से परिमार्जित भाषा के रूप में ढल रही थी, विकसित हो रही थी। यह वह क्षेत्र था जिसे आधुनिक शब्दावली में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र कहा जा रहा है। उर्दू भी उस समय इसी क्षेत्र में विकसित हो रही थी जो फारसी से मुक्त होकर पलटनों के बाजार की भाषा का रूप ले रही थी। खुसरो की हिंदवी भी इसी क्षेत्र में अपना रूप पा रही थी। ब्रजभाषा को भाखा कहा जाता था, खुसरो के कुछ पद भाखा में भी रचित हैं।

हिंदवी किस प्रकार अमीर खुसरो की मातृभाषा थी, इसे जानने के लिए उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि से परिचित होना जरूरी है। अमीर खुसरो के पिता अमीर सैफुद्दीन एक तुर्की कबीले के सरदार थे जो चंगेजी युद्धों के दौरान हिंदुस्तान आ गए थे और उत्तर प्रदेश में गंगा के तट पर बसे एटा जिले के पटियाली नामक कस्बे में बस गए थे। यह दिल्ली से अधिक दूर नहीं हैं। यहीं हिजरी सन् 651 (1253 ई.) में अमीर खुसरो पटियाली (एटा) में जन्मे। वे शैशव से ही बडे मेधावी थे, इसीलिए अच्छी शिक्षा- दीक्षा के लिए इनके पिता सैफुद्दीन इन्हें दिल्ली ले आए। उन्हें अच्छे शिक्षकों के हवाले तो किया ही, उन्हें तत्कालीन प्रसिद्ध सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया (ख्वाजा निजामुद्दीन अवलिया रहमतुल्लाह अलैह) की शिष्यता में रख दिया। तब से जीवन- पर्यन्त ये उनके शिष्य रहे और 50 वर्ष की आयु तक वे पूरी तरह उन्हीं को समर्पित हो गए। आठ वर्ष की आयु में पिता की मृत्यु के पश्चात उन्हें इनकी माता अपने पिता, इनके नाना एमानुमुल्क के यहां ले आयीं। नाना का घर हिन्दुस्तानी सभ्यता और संस्कृति का केन्द्र था- ऐसे उदार वातावरण में उनका कैशोर्य परवान चढा। 671 हिजरी सन् में इनके नाना का भी देहांत हो गया, उसके बाद एक के बाद एक बलबन, बलबन के छोटे लडके बुगरा खां, उन्हीं के बडे लडके सलाम मुहम्मद आदि दस बादशाहों के दरबार में रहे, उनके अंतिम संरक्षक मुहम्मद तुगलक के शासन काल में 1323 ई. में खुसरो के गुरु ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया का देहांत हो गया, वे उस समय दिल्ली से बाहर थे। दीवानों की तरह ये गुरु को याद करते हुए दिल्ली लौटे। इसी मनोस्थिति में वे संसार से विरागी हो गए, गुरु की समाधि पर झाडू, आदि लगाकर वहीं के होकर रह गए। गुरु के प्रति श्रद्धा-प्रेम व्यक्त करते हुए उन्होंने यह दोहा कहा:-

गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस,

चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुं देस।।

आज भी हजरत निजामुद्दीन औलिया के सालाना उर्स की कार्रवाई इसी दोहे से शुरू की जाती है। गुरु से उनकी प्रीति इतनी गाढी थी कि उनकी मृत्यु के बाद खुसरो कुछ ही माह जीवित रहे, सन् 1325 ई. (725 हिजरी) में उनका भी देहावसान हो गया। उनकी समाधि ख्वाजा निजामुद्दीन साहब के पैताने ही बनायी गयी, जहां आज भी गुरु के साथ उन्हें भी श्रद्धांजलि दी जाती है। अपने जीवन-काल में उन्हें अपार यश, आदर-सत्कार, भेंट-उपहार, उपाधियां मिली थीं, मुल्कशोअरा (राष्ट्र-कवि) की उपाधि से उन्हें दो बादशाहों ने अलंकृत किया था। अमीर खुसरो राष्ट्रीयता के उन्मेष के प्रथम हिंदी कवि है। कहा जाता है कि उन्होंने नुह् सिप्हर मसनवी में हिंदुस्तान की प्रशंसा में चार-पांच सौ काव्य- पंक्तियों की रचना की है, ये प्रत्येक दृष्टि से अद्धितीय है। उन्होंने अपनी अंतरात्मा से इस प्यारे हिन्दुस्तान की भूमि, यहां के पेड- पौधों, फूल-पत्ती, पक्षी, रीति-रिवाज, यहां के ज्ञान, ज्ञानी पंडितों, आदि की प्रशंसा अपनी कविता में की है। हिंदुस्तान को वे रूम (रोम), इराक तथा खुरासान से भी उत्तम समझते हैं:-

तरजीहे मुल्के हिंद व अवल आज हवाय खुश।

बर रूम ब कर इराक व खुरासाने बर्फ बार॥

अमीर खुसरो ने अपनी मसनवी नुह् सिप्हर में हिन्दुस्तान की प्रतिष्ठा के लिए दस तर्क प्रस्तुत किए हैं:- 1. हिंदुस्तान में विद्या प्रत्येक देश से अधिक है, 2. हिंदुस्तानी संसार की सभी भाषाएं शुद्ध बोल सकता है पर विदेशी भारतीय भाषा शुद्ध नहीं बोल सकते। 3. प्रत्येक देश के लोग यहां शिक्षा के लिए आते हैं, किंतु कोई ब्राšाण (हिंदुस्तानी) शिक्षा के लिए बाहर नहीं जाता। 4. गणित में शून्य की खोज भारत की है। 5. दमना कलैला प्राचीन हिंदुस्तान की ऐसी रचना है जिसके अनुवाद अरबी, फारसी तथा तुर्की में हुए हैं। 6. शतरंज यहीं की देन है। 7. गणित, दमना तथा शतरंज ये तीनों हिन्दुस्तान के घर-घर के दीप हैं। 8. गीत-संगीत हिंदुस्तान जैसा पूरी दुनिया में नहीं है। (प्रसंगवशात् बता दें कि अमीर खुसरो उच्चकोटि के संगीतज्ञ भी थे।) 9. यहां की संगीत कला हिरण जैसे पशुओं को भी मोहित कर लेती हैं। 10. हिंदुस्तान का अमीर खुसरो जैसा कवि संपूर्ण पूरी दुनिया में नहीं है। (इसे विद्यापति की गर्वोक्ति के साथ रखकर देखिए- दोनों कवि खुम्म ठोंक कर अपनी श्रेष्ठता का लोहा मनवाते हैं)।

पूरी तरह हिन्दुस्तान और हिंदी (हिंदवी) के रंग में रंगे इस कवि ने लगभग 45 कृतियों की रचना की बताते हैं किन्तु आज उनकी गद्य और पद्य की कुल 28 पुस्तकें ही प्राप्त हो सकी हैं। उनकी पहेलियां और मुकरियां जिस चली आती लोक- काव्य परम्परा का प्रतिनिधित्व करती हैं, उसके कारण इनकी कृतियों में मिलावट भी खूब हुई। आज समय की आवश्यकता है कि उनकी काव्य- कृतियों का सुचिंतित पाठ प्रस्तुत कर अमीर खुसरो की प्रामाणिक ग्रंथावली प्रकाशित हो, जिसे हिंदी, फारसी, अरबी और तुर्की भाषाओं का ज्ञान हो, वही इसे सही अंजाम दे सकता है।

[63, केसरबाग, पटियाला, पंजाब]


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