मिथिलांचल में विख्यात हैं परसरमा की मां दुर्गा
बड़ी महिमामयी हैं परसरमा की मां दुर्गा। इनके बारे में भक्तों की मान्यता है कि मां हर मनोकामना पूरी करती हैं। इस कारण इनकी ख्याति मिथिलांचल में दूर-दूर तक फैली हुई है।
सुपौल। बड़ी महिमामयी हैं परसरमा की मां दुर्गा। इनके बारे में भक्तों की मान्यता है कि मां हर मनोकामना पूरी करती हैं। इस कारण इनकी ख्याति मिथिलांचल में दूर-दूर तक फैली हुई है। भले ही इस दुर्गा मंदिर को शक्तिपीठ का दर्जा न मिला हो और भगवती की पूजा शारदीय नवरात्रा के मौके पर प्रतिमा बनाकर की जाती हो। लेकिन तंत्र साधना के लिये यहां सदियों से साधक पहुंचते रहे हैं। ग्रामीणों की मानें तो मिथिला नरेश दरभंगा महाराज रामेश्वर सिंह ने भी यहां आकर माता के दरबार में तंत्र सिद्धि की थी। इसका जिक्र तत्कालीन कस्बाई राजा हरिदत्त सिंह ने एक संस्मरण में किया था। लोकदेव लक्ष्मीनाथ गोसाईं ने भी इसी माता दरबार में साधना व सिद्धि की थी। माता मंदिर के सामने का तालाब गोसाईं ने खुदवाया था और जल आसन ले घंटों साधना किया करते थे।
राजा के स्वप्न में आई थीं माता-
ग्रामीण बताते हैं कि वे दादा-परदादा से सुनते आ रहे हैं कि लगभग चार सौ साल पूर्व से इस मंदिर में माता की पूजा, अराधना होती आ रही है। कहा जाता है कि कस्बाई राजा हरिदत्त सिंह अथवा उनके किसी पूर्वज को भगवती ने स्वप्न दिया था और बताया था कि वे उक्त स्थल पर मौजूद हैं। तब से उसी स्थान पर माता की पूजा की जाने लगी। दूसरी मान्यता भी इससे मिलती जुलती है। वृद्धजन बताते हैं कि भगवती अंकुरित हैं और राजा को स्वप्न दिये जाने के बाद ही यहां मंदिर का निर्माण कराया गया। तब तंत्र पद्धति से पूजा की गई थी, जो आज तक चली आ रही है।
भैंसा बलि की भी है प्रथा-
विजयादशमी के मौके पर यहां भैंसा बलि की प्रथा है। जब से यह प्रथा चली आ रही है तब से कभी पूजा समिति को भैंसा बलि चढ़ाने वाले का अभाव नहीं हुआ। इसके अलावा छाग बलि सालों भर दी जाती है। लेकिन नवरात्रा से पूर्व यानी अनंत चतुदर्शी से पूर्व चौठ से ही यहां बलि रोक दी जाती है। नवरात्रा की षष्ठी पूजा के उपरान्त यानी सप्तमी पूजा से फिर बलि प्रारंभ की जाती है जो सालों भर चलती है। इस जाग्रत मंदिर में माता के प्रति आस्था,पूजा और मनौती का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आगामी पचीस वर्ष तक की पूजा अग्रिम बुक है और लोगों को अपना नंबर नहीं मिल पा रहा है।
विसर्जन की है अद्भूत परंपरा-
यहां माता की प्रतिमा विसर्जन की अद्भूत परंपरा है। विजयादशमी को यात्रा के उपरान्त संध्याकाल में भगवती को उल्टा रूप में जल प्रवाह कराया जाता है। जल प्रवाह में शामिल लोग पुन: पलटकर नहीं देखते हैं। मान्यता है कि उक्त राजा के वंशज व गंधवार क्षत्रिय इस विसर्जन में शामिल नहीं होते हैं। विसर्जन से पूर्व ही मंदिर में लगे साजो- सामान खोल दिए जाते हैं। यहां तक कि रोशनी भी बंद कर दी जाती है। विसर्जन में स्थानीय ग्रामीणों में कुछ खास लोग ही शामिल होते हैं।
जिला मुख्यालय से दस किमी दक्षिण दिशा में अवस्थित है माता का मंदिर। सहरसा-सुपौल मुख्य सड़क से जाने के लिये हमेशा सवारी उपलब्ध होती है। माता के मंदिर तक पक्की सड़क की सुविधा है।
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