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मोर पिया चली गेल

<p>वादियां अपनी हरीतिमा की छटा से चारों ओर शीतलता फैला रही थीं। सुखद माहौल में पक्षियों का कलरव गूंज रहा था। मेघ पहाडों को चुपके से स्पर्श कर दूर कहीं शून्य में लुप्त हो जाते। इस वासंती हवा में महुए की मादकता तीव्र हो उठी। तभी उस मादकता में एक विषाद पूर्ण स्वर-लहरी फैल गई- मोर पिया चली गेल .., बुंडू तमाड गोई, बुंडू तमाड मन उदास गोई, पिया बिनु। </p>

By Edited By: Published: Sun, 12 Aug 2012 07:59 PM (IST)Updated: Sun, 12 Aug 2012 07:59 PM (IST)
मोर पिया चली गेल

[लक्ष्मी रानी लाल]। वादियां अपनी हरीतिमा की छटा से चारों ओर शीतलता फैला रही थीं। सुखद माहौल में पक्षियों का कलरव गूंज रहा था। मेघ पहाडों को चुपके से स्पर्श कर दूर कहीं शून्य में लुप्त हो जाते। इस वासंती हवा में महुए की मादकता तीव्र हो उठी। तभी उस मादकता में एक विषाद पूर्ण स्वर-लहरी फैल गई- मोर पिया चली गेल .., बुंडू तमाड गोई, बुंडू तमाड मन उदास गोई, पिया बिनु।

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अपनी पीठ पर दो वर्ष का एक शिशु बांधकर बिफनी इस विषाद पूर्ण गीत को गुनगुना रही थी। उसकी पांच वर्षीया पुत्री ने अचानक आकर अपनी मां का आंचल लहरा दिया।

मां की सुर में सुर मिलाकर वह आंचल पकडकर थिरकने लगी। लाल लाल लाल साडी गो, लाल लाल लाल साडी गो मन उदास गोई पिया बिनु।

तू कहां से आ गई इस जंगल में? भाग जा, जल्दी भाग जा यहां से, लकडबग्घे आते हैं यहां। ने अपनी पुत्री लाखी को हटाते हुए कहा।

मां तुम्हें लकडबग्घे से डर नहीं लगता? भयभीत होकर लाखी ने कहा।

बेटा! हम डरेंगे तो कहां जाएंगे? क्या खाएंगे? बिफनी ने भयभीत होते हुए कहा। मां तुम भी चलो न! बाबू जब आएंगे तभी उनके साथ आना। गुरुवारी के आंचल खींचते हुए लाखी ने कहा। तू जाती है या नहीं? मार खाए बिना मानेगी नहीं तू? क्त्रोध से बिफनी ने कहा।

निराश होकर लाखी लौट पडी। अपनी पीठ पर अपनी संतान को बांधकर बिफनी लकडी के छोटे-छोटे टुकडे काट रही थी। उसकी जीविका के साधन ये लडकियां ही थीं।

इन्हें बेचकर वह अपने परिवार का भरण-पोषण करती थी। उसका पति रोजी-रोटी की तलाश में बुंडू गया हुआ था। अचानक वह सहम कर शांत हो गई। कहीं जंगल के ठीकेदार का आदमी न आ जाए। यह सिर्फ उसका भय नहीं था, बल्कि अन्य सभी गरीब एवं बेबस युवतियां भी परेशान थीं। वह उनसे लकडियां काटने के एवज में पैसे मांगता था। जिन्हें खाने के लाले पडे हों, वे भला पैसे कहां से देतीं? वे वहशी दरिन्दे भी कम नहीं होते थे। उनकी ललचाई दृष्टि पालतू मुर्गियों पर होती।

मुर्गियां नहीं मिलने पर चूजों पर बात तय होती। अजीब विवशता थी। जंगलों, पहाडों तथा सुदूरवर्ती क्षेत्रों में रहने के कारण, बाहरी उन्नत समाजों के साथ इनका संपर्क नहीं था। इसलिए उनका जीवन दोहन-शोषण एवं उत्पीडन से भरा हुआ था। उनमें अपने अधिकारों के प्रति कोई जागृति न थी।

वे लाचारी और बेबसी से शारीरिक यंत्रणाएं एवं मानसिक उत्पीडन का शिकार होतीं। कभी वे प्रकृति से संघर्ष करतीं तो कभी व्यापारियों और साहुकारों के चंगुल में जा फंसतीं। उनके विरोध में वे अपनी आवाज नहीं उठा पातीं, बल्कि नियति के आगे सर झुका देतीं।

बिफनी दिन भर लकडियां चुनकर हाट में बेच आती। बच्चों की एक समय की भूख, वह मांड-भात से मिटा देती। पति को हडिया पीये बिना कभी नींद न आती। इनमें एक विशेषता भी थी। पर्व त्योहारों एवं रात के अंधेरे में दिन भर की सारी थकान, निराशा तथा चुभन एवं घुटन को भूलकर, इनके पांव मांदर की थाप पर थिरक उठते। ये निश्छल तथा भोले-भाले लोग फिर एक-दूसरे को गलबहियां डाले एक सुखद स्वर लहरी में डूब जाते।

बिफनी ने पिछली रात बच्चों को मांड-भात खिलाकर सुला दिया था, पर आज सुबह से बच्चे भूखे थे। उसे तो अब भूखी रहने की आदत सी पड गई थी। वह लाखी को अपने साथ काम पर लाना नहीं चाहती थी कि पता नहीं किसी की कुदृष्टि उसे लग जाये। लाखी के जाने के बाद वह निश्चिन्त होकर लकडियां काटने लगी।

पति की याद में खोयी बिफनी लकडियां काट रही थी कि झाडी से एक बलिष्ठ हाथ ने उसे खींचा और उसकी पीठ पर से बच्चे को खींच कर दूर फेंक दिया। बच्चा अपने आपको अकेला पाकर जोर-जोर से चीखना शुरू कर दिया। पक्षी-समूह चीत्कार करते हुए उड गए। झाडी के अंदर से बिफनी के रो-रोकर गिडगिडाने का स्वर आ रहा था। झाडी में जैसे भूचाल आ गया हो। झाड-झंखाड भी कांप उठे। बिफनी संघर्ष कर रही थी, चीख-चिल्ला रही थी, पर उस नितांत निर्जन में उसकी कौन सुनता?

उस दिन विश्व रंगमंच पर मानव अधिकार दिवस मनाया जा रहा था। जो अधिकार मानव को मानव होने के नाते दिए जाते हैं, उसकी प्राप्ति के लिए विश्व रंगमंच पर संघर्ष जारी है। उस प्रशासनिक व्यवस्था में जहां जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार के नारे लग रहे थे, वहीं एक नारी की यह दुर्दशा?

अचानक झाडी से बाहर एक लाल साडी हवा में लहराती आ गिरी। इसके साथ ही बिफनी का नारीत्व जाग उठा। उसकी हुंकार गूंज उठी और उसने उस नर-व्याघ्र को अपने पंजे से एक धक्का दे दिया। उसने उसे उठने का मौका नहीं दिया। बिफनी ने उसके सीने पर अपना एक पांव रखा और लकडी काटने वाली कटारी उसके सीने से सटा दी। उसकी आंखों से मानो आग की लपटें निकल रही हों। सीने में कटारी का दबाव पडते ही वह नर-व्याघ्र थर-थर कांपने लगा। बिफनी के पांव पकड कर वह घिघियाने लगा- मुझे क्षमा कर दो, अब जीवन में मुझसे कभी ऐसी गलती नहीं होगी। मैं इस इलाके से बहुत दूर चला जाऊंगा।

कटारी का दबाव बढाते हुए बिफनी ने कहा- हम जंगलों में पलने वाली नारियों से कभी बैर मोल नहीं लेना। नारियां कहीं हों, पर उन्हें कभी कमजोर समझने की गलती नहीं करना। हम लोग दयालु होती हैं, क्षमाशील भी होती हैं, पर दुर्बल होने पर भी कमजोर नहीं समझना।

बिफनी ने उस नर-व्याघ्र के सीने से कटारी हटा ली। वह तेजी से उठा और बिना पीछे देखे भागता चला गया।

सिर्फ धूल ही धूल अब दिखाई दे रही थी। बिफनी ने उस लाल साडी को उठाकर अपने सीने से लगा लिया। साडी का शरीर से अलग होना ही उसे क्रुद्ध शेरनी बना गया था। पिछले टुसू पर्व में पति ने उसे यह साडी भेंट की थी। पति की यह भेंट जब उसे इतनी शक्ति दे सकती है, तब पति का साथ उसका प्रेम-कितनी शक्ति देता है।

पति की स्मृति से विह्वल होकर मन ही मन, मोर पिया चली गेल.. बुंडू तमाड गोई बुंडू तमाड, मन उदास गोई पिया बिनु, लाल लाल लाल साडी गोई, लाल लाल साडी गोई, मन बहुत उदास गोई पिया बिनु। गुनगुनाती घर की ओर चल पडी।


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