नव-संवत्सर: सृष्टि की जयंती है
आज से नए विक्रम संवत्सर 2070 की शुरुआत हो रही है। इसकी कालगणना ब्रहमा जी द्वारा सृष्टि के निर्माण की तिथि से की जाती है, इसलिए इसे सृष्टि की जयंती भी माना जाता है।
सभी ऋतुओं के पूरे एक चक्र को संवत्सर कहा जाता है। अमरकोश में यही व्याख्या की गई है- सर्वर्तुपरिर्त्तस्तु स्मृत: संवत्सरौ बुधै। अर्थात किसी ऋतु से आरंभ करके ठीक उसी ऋतु के पुन: आने तक जितना समय लगता है, उस कालमान को संवत्सर कहा जाना चाहिए।
ऋतु शब्द की व्युत्पत्ति से विदित होता है कि जो सदा चलती रहे, उसे ऋतु कहते है। अस्तु ऋतु ही काल की गति (चाल) है। ऋग्वेद (10-85-10) में चंद्रमा को ऋतुओं का निर्माणकर्ता बताया गया है। इसी कारण भारतीय संवत्सर (वर्ष) के लिए चंद्र संवत्सर को धर्मग्रंथों में प्रमुखता दी गई। उत्तर भारत के अधिकांश पंचांग चंद्र संवत्सर के आधार पर ही बनते हैं। भारतीय ज्योतिष में चंद्रमा को मन का कारक ग्रह बताया गया है। चंद्र संवत्सर चैत्र मास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा तिथि से प्रारंभ होकर चैत्र मास के कृष्णपक्ष की अमावस्या तक प्रभावी होता है। वसंत ऋतु में शुरू होने वाला यह संवत्सर समस्त ऋतुओं की परिक्रमा करने के बाद अंत में वसंत ऋतु में समाप्त होता है। वसंत को ऋतुराज माना जाता है, अत: संवत्सर का प्रारंभ और अंत इसी ऋतु में होना स्वाभाविक एवं उचित है।
ब्रहमपुराण के अनुसार, चैत्रे मासि जगद् ब्रहम ससर्ज प्रथमे-हानी। शुक्लपक्षे समग्रे तु तदा सूर्योदय सति।। अर्थात चैत्र मास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा परीवा तिथि के सूर्योदय से ब्रहृमाजी ने सृष्टि के निर्माण का कार्य शुरू किया। इसी कारण चंद्र संवत्सर का प्रारंभ चैत्र-शुक्ल-प्रतिपदा से होता है। स्मृतिकौस्तुभ में चैत्र-शुक्ल- प्रतिपदा के दिन सृष्टि के पालक भगवान विष्णु के सर्वप्रथम अवतार मत्स्यावतार के होने का उल्लेख भी मिलता है। वैज्ञानिक भी मानते हैं कि सृष्टि-रचना के अंतर्गत जीव का सबसे पहले अस्तित्व जल में ही संभव हुआ। युग पूर्व भारतीय ऋषि-मुनियों ने यह तथ्य जान लिया था, तभी श्रीहरि के जल में मत्स्यावतार लेने का वैज्ञानिक आधार बना।
धर्मग्रंथों में चैत्र-शुक्ल-प्रतिपदा के दिन नवसंवत्सरोत्सव मनाने की बात लिखी है। इस दिन मुख्यत: ब्रहमाजी का काल-पुरुष के समस्त अवयवों सहित पूजन करने का विधान है। अथर्ववेद (3-9-10) से यह पता चलता है कि नवसंवत्सरोत्सव को अति प्राचीन वैदिक काल से ही महापर्व के रूप में मनाया जाता रहा है।
काल के नियंत्रक महाकाल की नगरी उज्जयिनी में उनके कृपापात्र सम्राट विक्रमादित्य ने शकों पर विजय प्राप्त करने की स्मृति को चिर-स्थायी बनाए रखने के उद्देश्य से चैत्र-शुक्ल-प्रतिपदा से विक्रमीय संवत् का प्रवर्तन किया।
कल गुरुवार 11 अप्रैल को विक्रम संवत 2070 का शुभारंभ होगा। सनातन धर्म एवं ज्योतिष शास्त्र में प्रत्येक संवत्सर को एक नाम भी दिया गया है। वर्ष संवत्सर के नामकरण की यह भारतीय प्रथा अत्यंत अनूठी और निराली है। गुरुवार, 11 अप्रैल से प्रांरभ होने वाले संवत्सर का नाम पराभव होगा। प्रत्येक धार्मिक कृत्य में पढ़े जाने वाले संकल्प में संवत्सर का नाम अवश्य लिया जाता है। ज्योतिषीय दृष्टि से इसके राजा-गुरु और मंत्री-शनि होंगे।
भारतीय काल-गणना के हिसाब से मान्यता है कि गुरुवार, 11 अप्रैल 2013 को सप्तम वैवस्वत मन्वंतर के 28वें महायुग में तीन युग- सतयुग, त्रेता और द्वापर के व्यतीत हो जाने के पश्चात कलियुग के प्रथम चरण में वर्तमान सृष्टि के 1,95,58,114 वर्ष बीत जाने पर नए संवत्सर का प्रारंभ होगा। अतएव भारतीय काल-गणनानुसार कल गुरुवार 11 अप्रैल 2013 को सृष्टि की 1,95,58,85,114वीं जयंती मानी जाएगी।
नव-संवत्सर के शुभ दिन हम दुर्गुणों को त्यागकर यदि सद्गुणों को ग्रहण करने का संकल्प लें, तभी नवसंवत्सरोत्सव का आयोजन सार्थक होगा।
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