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परोपकार से बनती है उल्लास भरी दुनिया

रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा है, तुम्हारे जीवन में जैसे-जैसे दूसरों को स्थान मिलेगा, वैसे-वैसे तुम्हारा अपना व्यक्तित्व होगा। पुराने समय के खगोलशास्त्री मानते थे कि विश्व का मध्यबिंदु पृथ्वी ही है। चंद्र और सूर्य, ग्रह और तारे उसके आसपास चक्कर लगाते हैं।

By Edited By: Published: Mon, 08 Oct 2012 11:03 AM (IST)Updated: Mon, 08 Oct 2012 11:03 AM (IST)
परोपकार से बनती है उल्लास भरी दुनिया

नई दिल्ली,। रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा है, तुम्हारे जीवन में जैसे-जैसे दूसरों को स्थान मिलेगा, वैसे-वैसे तुम्हारा अपना व्यक्तित्व होगा। पुराने समय के खगोलशास्त्री मानते थे कि विश्व का मध्यबिंदु पृथ्वी ही है। चंद्र और सूर्य, ग्रह और तारे उसके आसपास चक्कर लगाते हैं। सदियों के बाद वैज्ञानिक दृष्टि विकसित हुई, तब महान खगोल शास्त्री कोपरनिकस तथा गेलिलियो ने रूढि़वादियों के रोष का जोखिम उठाकर दुनिया को बताया कि पृथ्वी स्थिर नहीं है, न वह विश्व का मध्यबिंदु है, बल्कि वह सूर्य के आसपास घूमती है।

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पृथ्वी पदभ्रष्ट हुई और यह धृष्टता करने के बदले गेलिलियो को कैद भुगतनी पड़ी। परन्तु ब्रह्मांड का सच्चा बोध हो जाने से आधुनिक खगोलशास्त्र की नींव पड़ी और आकाशयुग की सिद्धियों के लिए द्वार खुल गए।

मनुष्य भी बाल्यावस्था में यही मानता है कि दुनिया का केंद्र मैं हूं। बालक देखता है कि माता-पिता सूर्य-चंद्र की तरह-दिन-रात उसके आसपास घूमा करते हैं। उसके मुंह से निकली बात को वे उठा लेते हैं, उसकी एक-एक इच्छा पूर्ण करने के लिए सब दौड़े-दौड़े फिरते हैं। मानो बालराजा का दरबार हो। रोना शुरू किया, मानो ढिंढ़ोरा पीटा हो! दूसरों की भी ऐसी ही जरूरतें और इच्छाएं होती हैं, इसका ख्याल बालक को नहीं होता।

फिर घर में छोटा भाई का जन्म होने पर सबका ध्यान उसकी ओर हो जाता है तब, अथवा स्कूल जाने पर कक्षा का एक विद्यार्थी बनकर दूसरे बालकों के साथ बेंच पर बैठना पड़ता है तब, उसे गेलिलियो का संदेश मिलता है-दुनिया का केंद्र तुममें नहीं, दूसरे ही ठिकाने हैं।

गेलिलियो के समय कितने ही विद्वानों ने पृथिवी के मध्यबिंदु होने का मोह छोड़ने से इंकार किया, यही नहीं, बल्कि दूरबीन द्वारा देखने से पृथिवी के परिभ्रमण का निश्चय हो सकेगा, ऐसा उनसे कहा गया तो उन्होंने आंखों पर दूरबीन न लगाने का ही व्रत ले लिया।

अपने को केंद्र में रखने से न तो विज्ञान की प्रगति होती है और न व्यक्तित्व-निर्माण संभव होता है।

जैसे-जैसे मनुष्य दूसरों के आसपास फिरने लगता है, वैसे-वैसे उसका मानसिक क्षितिज और जीवन-आकाश विशाल बनेत जाते हैं। जैसे-जैसे अपना स्वार्थ छोड़कर दूसरों के लिए वह जीना सीखता है, वैसे-वैसे ही उसका व्यक्तित्व परिपक्व होता है।

इस बारे में धर्म का उपदेश, विज्ञान का पाठ, शिष्टाचार का विवेक और मनोविज्ञान की सीख सब एकमत हैं-स्वार्थ-त्याग प्रगति की आवश्यक शर्त है। मनुष्य यदि अपने चारों ओर फिरता रहेगा तो वह चक्कर खाकर गिर पड़ेगा, लेकिन अगर दूसरों के आस-पास फिरेगा तो जीवनाकाश में ऊंचा-ही-ऊंचा चढ़ता जाएगा।

घूमना तो सबको है, लेकिन कोल्हू के बैल और आकाश के तारों के घूमने में कितना अंतर पड़ जाता है!

एक छोटा-सा प्रयोग करके देखो। किसी मित्र को तुमने हाल में कोई पत्र लिखा हो तो उसमें मैं, मेरा ऐसे सर्वनाम कितनी बार आते हैं और तुम, तुम्हारा आदि कितनी बार; यह गिन जाओ। अगर तुम की अपेक्षा मैं की संख्या बढ़ जाय और तुम्हारी सामान्य बातचीत में भी ऐसा ही होता हो, तो तुम्हारी परिभ्रमण-कक्षा बहुत विशाल नहीं, ऐसा मानने का कारण मिलेगा।

उसे अधिक विशाल बनाने के लिए दूसरों में सच्चे दिल से व्यक्तिगत रस लेने लगो। उनके विचार जानने से तुम्हारी दृष्टि अच्छी बन जाएगी, उनका दुख देखकर तुम्हारा दुख कम होने लगेगा, उनके सुख में भागीदार बनकर तुम्हारा आनंद छलकने लगेगा।

घड़े का पानी घड़े में रहे तो वह बंधा हुआए गतिहीन, निस्पंद रहेगा; लेकिन अगर उसे समुद्र में डाल दिया जाए तो उसमें महासागर का वेग और शक्ति, विशालता और गहनता आ जाएगी!

केंद्र में किसे रखकर जीवनवृत्त रचना चाहिए, यह प्रश्न है!

हृदय-सिंहासन पर किसका अभिषेक करना चाहिए, यही सवाल है।

मंदिर में किस इष्ट देव की प्रतिष्ठा करनी है, यही सवाल है।

परंतु पुजारी अगर अपनी ही मूर्ति गद्दी पर बिठा दे, अगर राजपुरोहित अपने ही मस्तक पर अभिषेक करे, तो अनर्थ हुआ कहा जाएगा।

और दु:ख की बात तो यह है कि अपने-अपने जीवन में हम ऐसी ही धृष्टता कर बैठते हैं। अपने-आपको केंद्र में बिठाकर राज, पूजा और जीवन चलाते हैं,और फलस्वरूप हमारा वृत्त एक छोटे बिंदु जैसा हो जाता है।

लोग तुम्हारी स्तुति करें तो तुम्हें अच्छा लगता है; तुम्हारी बात सुनें तो तुम खुश होते हो; तुम्हारा अभिप्राय पूछें तो तुम्हारी छाती फूलने लगती है; तुम्हारा सहयोग मांगे तो तुम्हें अपने महत्त्‍‌व का खयाल एकदम आ जाता है। अब दूसरों का सहयोग लेना, दूसरों की बात सुनना, दूसरों का अभिप्राय जानना, और प्रसंग आने पर पूरे दिल से दूसरों की स्तुति करना तुम्हें सीखना चाहिए।

चुनाव के सिलसिले में मत लेन के लिए बाहर निकल पड़े उम्मीदवारों की तरह खुशामद और औपचारिक विवेक का दिखावा करने की बात नहीं; परंतु अपनी दुनिया की क्षितिज-रेखा बढ़ाने के लिए, अपने दिल को दरिया-दिल और अपनी दृष्टि को विश्व-दृष्टि बनाने के लिए, दूसरों के लिए ही जीने का मंगल प्रयोग करना जरूरी है।

अपने हृदय के आंगन में मेहमानों को आने दो! उनका आदर-सत्कार करो! उनकी सेवा को अपनी प्रथम साधना समझो! कवि के ये उद्गार सदा याद रखो :

प्रेम करना चाहो मुझसे करो, और धिक्कारना चाहो तो मुझे धिक्कारो, लेकिन मेरी एक ही विनय है-मेरी उपेक्षा न करो।

तुम्हारे जीवन में जैसे-जैसे दूसरों को स्थान मिलेगा, वैसे-वैसे तुम्हारा अपना महत्त्‍‌व बनेगा।

चेतावनी का एक शब्द। सेवा के नाम पर स्वार्थ साधने की कुटिल वृत्ति कभी न रखना। दुनिया के बाजार में जनसेवा की तख्तियां लगाकर बहुत-से दुकानदार बैठे हैं, परंतु इन दुकानों में चलता है सिर्फ लाभ का व्यापार; जनकल्याण के बहाने खुदगर्जी; समाज-सुधार के झंडे के नीचे समाज-शोषण। यह तो बिच्छू की तरह हंसता मुंह रखकर पूंछ टेढ़ी करके विषला डंक मारने जैसा है।

दूसरे मनुष्यों को अपनी प्रगति का सोपान, अपने कीर्ति मंदिर का पत्थर, अपनी शतरंज के मुहरे कभी न समझो।

मानव-व्यक्तित्व की अमर-ज्योति जैसी तुम में, वैसी ही दूसरों में भी झलकती है।

किसी को अपना साधन न बनाओ। किसी को अपने पैरों के नीचे दबाकर ऊंचा उठाने का भ्रष्ट प्रयत्न न करो। दूसरों का सुख छीनकर स्वार्थ सिद्ध करने जाओगे तो स्वार्थ के कोल्हू में पिस जाओगे।

स्वार्थ स्वयं अति क्षुद्र बना देता है। इसलिए किस पर स्वार्थ अपना हाथ रखता है, उसे भी क्षुद्र बना देता है। इतना ही नहीं, जिन मनुष्यों का अपना मतलब सिद्ध करने के लिए हम उपयोग करते हैं, वे हमारे समाने अपना मान खोकर यंत्ररूप-से बन जाते हैं। कार्यालय के अधिकारी की दृष्टि में दफ्तर के कर्मचारी मुख्यत: यंत्र ही होते हैं; सैनिक राजा की दृष्टि में यंत्र होते हैं और जो किसान हमें अन्न खिलाता है, वह सजीव हल-सा बन जाता है।

स्वार्थ की सृष्टि अर्थात् जड़-यंत्रों की सृष्टि, बुतों का कारखानाश् जीवत मुर्दो का कब्रिस्तान, जबकि परोपकार की दुनिया प्रेम और मैत्री, विश्वास और उदारता तथा जीवन और उल्लास की दुनिया है।

मेरी अपनी ही इतनी समस्याएं हैं कि दूसरों का विचार करने का मुझे अवकाश ही नहीं, यह खुदगर्ज की फिलॉसफी है। दुनिया में इतने अधिक महान और तात्कालिक प्रश्न हल हुए बिना पड़े हैं कि मेरे अपने प्रश्न के विचार की बारी अभी आई ही नहीं, यह जीवन-वीर की घोषणा है।

वस्तुत: दूसरों के प्रश्नों को हल करते हुए अपने प्रश्नों का हल आ ही जाएगा, जबकि अपने प्रश्नों में उलझे रहने से दुनिया के प्रश्नों में एक और की वृद्धि ही होगी।

दो विद्यार्थियों की डायरी में से ली गई नीचे की पंक्तियों की तुलना करो :

आज मेरा जन्मदिन है, परंतु हृदय में आनंद नहीं। सोचता हूं कि हरएक मनुष्य अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए रचा गया है। दूसरा कोई लक्ष्य दुनिया में दीखता नहीं। दो व्यक्तियों के स्वार्थ के परिणामस्वरूप ही मैं जन्मा हूं। दूसरों का स्वार्थ पुष्ट करके बड़ा हुआ। मुझ से फीस लेकर शिक्षक मुझे पास करता है, रिश्वत लेकर पास करता है और अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए मैं एक दिन शादी करूंगा और वृद्धावस्था में मेरे बच्चे मेरी संभाल कर लें-मानो बीमा पके और पालन-पोषण के लिए रुपये मिलें, इस इरादे से यथाशीघ्र बालकों का पिता भी बनूंगा। स्वार्थ के इस दूषित चक्र में से मुझे कौन बाहर निकालेगा?

और दूसरे (मेडिकल के अंतिम वर्ष में पढ़ने वाले) विद्यार्थी की डायरी में से :

आज मेरी अर्जी का जवाब मिला। मुझे घर-खर्च दिया जाएगा, बाकी अवैतनिक डॉक्टर के रूप में सारे दिन काम। सेवा-कार्य के लिए खुला मैदान। मां का आशीर्वाद फलेगा; दूसरों के लिए उपयोगी जीवन व्यतीत हो सकेगा, बचपन से-और खास करके अंतिम पांच वर्ष से-मेरे मन में उठी हुई अध्ययन और सेवा की अभिलाषाएं सिद्ध होंगी; दूसरों के जीवन को धन्य बनाते हुए मेरा अपना जीवन भी धन्य होगा।

एक ही डोरी को-जीवन-डोरी को-चक्री के चारों ओर स्वार्थ की प्रक्रिया से लपेटें तो वह मुट्ठी में समा जाए; परंतु उसे पतंग के-जीवन-ध्येय के-सिरे बांधकर खुला छोड़ दें तो आसमान में बढ़ जाए।

मैं एक बड़ा पत्थर है उसका भार भयंकर होता

जिस ओर मैं को रखो, उसी ओर धीरे-धीरे सब

झुक जाता है। अगर बचना हो, इसे पानी

में एकदम फेंक सको तो बहुत अच्छा।

(लेखक स्पेन मूल के गुजराती साहित्यकार हैं। सस्ता साहित्य मंडल, प्रकाशन नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित उनकी पुस्तक सच्चे इंसान बनो से साभार)

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