करुणा केसागर
स्वामी पार्श्वनाथ का जीवन करुणा से ओतप्रोत रहा। उन्होंने करुणा व प्रेम से अपने शत्रुओं को भी अपना बना लिया..
करुणा के अगाध सागर थे तेईसवें तीर्र्थकर पार्श्वनाथ स्वामी। 2860 वर्ष पूर्व वे वाराणसी के महाराज विश्वसेन एवं महारानी वामादेवी के पुत्र के रूप में जन्मे थे। उनकी जन्म-तिथि पौष कृष्ण एकादशी ईसा पूर्व 849 है। आज भी वाराणसी नगरी में भेलूपुर क्षेत्र में स्थित श्रीपार्श्वनाथ दिगंबर जैन मंदिर उनकी जन्मभूमि के रूप में विख्यात है। उनकी तपोभूमि उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद नगर के निकट अहिच्छत्र नामक स्थान है। इसी प्रकार झारखंड-प्रांत के सबसे ऊंचे पर्वत सम्मेदाचल की चोटी स्वर्णभद्रकूट उनकी पावन निर्वाणभूमि मानी जाती है, जहां उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया था।
पाश्र्र्वनाथ जी ने अपने करुणाभाव वाले जीवन एवं साधना से जनमानस में सर्वाधिक प्रभाव छोड़ा। यही कारण है कि जैन तीर्थंकरों में सर्वाधिक प्रतिमाएं पार्श्वनाथ जी की ही निर्मित हुई हैं।
पार्श्वनाथ जी का जीवन शुरू से ही प्रेम और करुणा से भरा रहा। प्रसंग है कि उन्होंने एक बार एक तपस्वी के हवनकुंड में जलते हुए नाग-नागिन को निकाला था और अंत समय में उन्हें तत्त्व-संबोधन देकर सद्गति प्रदान की। यह प्रसंग उन्हें शरीर की नश्वरता के प्रति सावधान कर गया। वे गृहत्याग कर साधना के पथ पर निकल पड़े। जैन धर्म में कथा है कि तपस्या करते समय जब उनके कई जन्मों के बैरी कमठ [शंबर] ने उपसर्ग [तपस्या में विघ्न] किया, तब भी पार्श्वनाथ उस पर क्रोधित नहीं हुए। उनकी करुणा के प्रवाह में कमठ का जन्मों का बैरभाव धुल गया और वह पार्श्वनाथ का अनुयायी बन गया। उन्होंने अपने अन्य शत्रुओं को भी अपना बना लिया था।
उनके समताभाव को इसी से समझा जा सकता है कि उनके उपदेशों की धर्मसभा को समवसरण नाम दिया गया, जिसका अर्थ होता है कि जिसमें आत्महित के समान अवसर प्राप्त हों।
अहिंसा से अपरिग्रह तक के उपदेशों को पार्श्वनाथ जी ने व्यक्त किया है, जिन्हें दिव्यध्वनि कहा जाता है। अंतत: उन्होंने सम्मेदाचल के स्वर्णभद्रकूट से 100 वर्ष आयु में देह के बंधन से मुक्त हो गए। उनका जीवन इतना कल्याणकारी था कि उनका जन्म, दीक्षाग्रहण, ज्ञान-प्राप्ति एवं मोक्ष जैसे अवसरों को कल्याणक शब्द से जाना जाता है। जैसे, आज उनका जन्मकल्याणक-दिवस है।
[प्रो. सुदीप कुमार जैन]
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