चैतन्य जीव ही भाव विचार का प्रेरक
पुराण प्रसिद्ध कथा है, समाजवादी देवगण अपने परंपरागत विरोधी व्यक्तिवादी दानव के साथ भोगी नागवंशियों के मध्यस्थता में समझौता कर सुमेर सदृश्य पूर्वजों के पुण्य प्रताप को मथानी बनाकर संसार सागर समाज को मथने लगे। उन सभी के सद्प्रयास से 14 रत्नों का अन्वेषण हुआ।
पुराण प्रसिद्ध कथा है, समाजवादी देवगण अपने परंपरागत विरोधी व्यक्तिवादी दानव के साथ भोगी नागवंशियों के मध्यस्थता में समझौता कर सुमेर सदृश्य पूर्वजों के पुण्य प्रताप को मथानी बनाकर संसार सागर समाज को मथने लगे। उन सभी के सद्प्रयास से 14 रत्नों का अन्वेषण हुआ। अंतिम रत्न के रूप में अमृत पात्र लेकर भगवान धन्वंतरि प्रकट हुए। धन्वंतरि यथा जो सभी के भाव विचार को धारण करने वाले मान्य पुरुष थे। जो सभी के प्रति संवेदनशील थे, वैसे हितैषी पुरुष द्वारा अमृत रूप में हिन्दुत्व हितैषी भाव विचार देव, दानव, नाग, खग आदि कश्यप पुत्रों को प्रदान किया गया। इसी क्त्रम में पहले मैं पहले मैं की छीना-झपटी में अमृत घट को इंद्र पुत्र जयंत एवं गरुड़ देव गुरू वृहस्पति की प्रेरणा से ले भागे। अस्तु, अमृत के संदर्भ में छांदोग्य उपनिषद् में कहा गया है कि-
मुखेन न वै देवा अश्नन्ति न पिबन्त्येतदवामृतं दृष्ट्वा तृप्यन्ति।
मुख से देवता न खाते हैं, पीते हैं, मात्र अमृत देखकर तृप्त हो जाते हैं।
पुराणों के अनुसार देवता अमृत प्राप्त किये एवं मात्र देखकर ही तृप्त हो गये। अस्तुत ,अमृत का ज्ञान प्राप्त कर अमृत वचन मात्र की प्रेरणा से अमर हो गए। जो उन्हें दिखा वह पांच प्रकार की चेतनाए थीं। चैतन्य जीव ही भाव विचार की प्रेरक होती है, जिसे समाजवादी देवों ने देखकर तृप्ति (संतोष) प्राप्त किया।
तद्यत्प्रथमममृतं तद्वसव उपजीवन्त्यग्निना
प्रथम अग्नि प्रधान अमृत वैसी चेतना थी, जिसे प्राप्त कर देवता (वसुगण) अपने लक्ष्य के प्रति अडिग निष्ठावान बन सकें।
अथ यद्दि्वतीयममृतं तद्रुद्रा उपजीवन्तीन्द्रेण
द्वितीय इन्द्र प्रधान है, अमृत चेतना थी, जिसे प्राप्त कर देवता (रुद्रगण) स्वयं को ध्यैय-उद्देश्य तक पहुंचने में सफल हो सके।
अथ यत्तृतीयममृतं तदादित्या उपजीवन्ति वरुणेन
तृतीय वरुण प्रधान अमृतमय चेतना थी, जिसे प्राप्त कर देवता (आदित्यगण) सामाजिक संवेदनाओं के प्रति संवेदनशील हो सके एवं उन्हें ग्रहण करने में सक्षम हो सके। नीति-अनीति के निर्णय में सक्षम हो सके।
अथयच्चतुर्थममृतं तनमरुत उपजीवन्ति सोमेन
चतुर्थ अमृत को प्राप्त कर देवगण (मरुद्गण) संवेदनशील हो आत्मीय अनुभूति से सोहम् भावना से प्रेरित हो जीव मात्र में स्वयं को प्रतिष्ठित कर सके। तभी मनुष्यों में 33 करोड़ देवताओं की मान्यता प्रचलित हैं, जिसे समुच्चय के रूप में गौ में दर्शन करते हैं। मनुष्यों में दो प्रकार की मनोवृत्ति पाई जाती है, अच्छी या बुरी। यथा सामाजिक भाव विचार वाली देव प्रवृत्ति एवं बुरी चेतना यथा स्वच्छंद अनीतिवान व्यक्तिवादी भाव विचार वाली दानवी प्रवृत्ति।
अथ यत्पंचमममृतं तत्साध्या उपजीवन्ति ब्रंाणा
पंचम प्रकार की ब्रंा प्रधान अमृत प्राप्त कर देवता (साध्यगण) संकीर्ण भाव विचार भेद-भाव से निवृत्त हो पूर्णतया हितैषी विश्वबन्धुत्व की तत्वज्ञान से पूर्ण हो गए ब्रंावादी हो गए। अस्तु, अधुना ब्रांणों को भू-देव कहा जाता है, क्योंकि वे ब्रंा स्वरूप होते हैं, तात्पर्य उनमें सामाजिकता हितैषी भाव आत्मीयता संवेदनशीलता पाई जाती है, आज भी समाज की अन्य जातियां ब्रांाणों पर सहज विश्वास एवं श्रद्धा रखती हैं।
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