संस्कृति एवं संस्कारों की नाजुक डोर
रक्षाबंधन मनाने के तौर-तरीके भले ही विभिन्न प्रांतों में अलग-अलग हों, लेकिन अहमियत हर जगह सूत्र की ही है। कभी इसे यज्ञ के दौरान अभिमंत्रित कर रक्षाकवच के रूप में धारण किया जाता था। कालातंर में यही रक्षाबंधन हो गया और श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को त्योहार के रूप में मनाया जाने लगा।
देहरादून। रक्षाबंधन मनाने के तौर-तरीके भले ही विभिन्न प्रांतों में अलग-अलग हों, लेकिन अहमियत हर जगह सूत्र की ही है। कभी इसे यज्ञ के दौरान अभिमंत्रित कर रक्षाकवच के रूप में धारण किया जाता था। कालातंर में यही रक्षाबंधन हो गया और श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को त्योहार के रूप में मनाया जाने लगा।
उत्तर भारत में रक्षाबंधन भाई-बहन के स्नेह का प्रतीक है। इस दिन बहन भाई की कलाई में रक्षासूत्र बांधकर बदले में परंपरानुसार उससे रक्षा का आश्वासन प्राप्त करती है। जबकि, दक्षिण भारत में यह त्योहार आध्यात्मिकता का पुट लिए हुए है। वहां इस दिन कुलीन वर्ग के लोग निराहार रहकर गायत्री मंत्र का जाप करते हैं और फिर ब्रांाणों के हाथों यज्ञोपवीत धारण करते हैं। सांध्य बेला में मिष्ठान व स्वादिष्ट भोजन कर उपवास तोड़ा जाता है और रात में संगीत, नृत्य, नाटक के कार्यक्त्रम होते हैं।
रक्षाबंधन पर यज्ञोपवीत धारण करने की परंपरा पड़ोसी देश नेपाल में भी है, इसलिए वहां इसे जनै पुणै या जनेऊ पूर्णिमा कहा गया है। बंगाल व बिहार में यह पर्व रक्षाबंधन के अलावा गुरु पूर्णिमा के रूप में भी मनाया जाता है। यह दिन वहां गुरु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का दिन है।
बता दें कि प्राचीन समय में अध्यापन कार्य सिर्फ ब्राहृमण ही किया करते थे, इसलिए इस दिन ब्रांाणों का विशेष सम्मान किया जाता है। छोटे बच्चे डंडा खेलते हैं और भगवा वस्त्र धारण कर घर-घर जाकर दक्षिणा प्राप्त करते हैं। हालांकि, गुजरात में शेष उत्तर भारत के समान इस पर्व को रक्षाबंधन के रूप में ही मनाया जाता है। हां, इतना अंतर जरूर है कि इस दौरान वहां गरबा नृत्य और नाटकों के विशेष आयोजन से उत्सव पर चार चांद लगा दिए जाते हैं।
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