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मछलियों को भी नसीब होता है कफन

सासाराम। मछली जल की रानी है, जीवन इसका पानी है..। यह कविता आज भी प्राथमिक कक्षाओं में बच्चों को याद कराई जाती है। इरादा, बच्चों में जीवों के प्रति संवेदना भरना है। परंतु वर्तमान परिवेश कुछ ऐसा है कि यही बच्चे बड़े होकर मछलियों का भक्षण करते हैं।

By Edited By: Published: Wed, 13 Mar 2013 11:32 AM (IST)Updated: Wed, 13 Mar 2013 11:32 AM (IST)
मछलियों को भी नसीब होता है कफन

सासाराम। मछली जल की रानी है, जीवन इसका पानी है..। यह कविता आज भी प्राथमिक कक्षाओं में बच्चों को याद कराई जाती है। इरादा, बच्चों में जीवों के प्रति संवेदना भरना है। परंतु वर्तमान परिवेश कुछ ऐसा है कि यही बच्चे बड़े होकर मछलियों का भक्षण करते हैं। नोखा प्रखंड का मनीपुर गांव इस मामले में आदर्श कहानी गढ़ रहा है। यहां काफी पुराने राम मंदिर के सामने बड़े भूभाग में बने तालाब की मछलियों का शिकार नहीं होता। शाम को मछलियों की जलक्त्रीड़ा का लोग आनंद लेते हैं और उनके लिए आहार डालते हैं। एक अनोखी परंपरा यह भी है कि मौत के बाद मछलियों का बाकायदा अंतिम संस्कार कराया जाता है। गांव के बुजुर्ग नई पीढ़ी को शाकाहारी रहने की शिक्षा देते हैं।

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फिलहाल गांव में एक सदी से यह परंपरा निभाई जा रही है। ग्रामीण बताते हैं कि गांव के जानकी पांडेय ने पोखरे और मंदिर का निर्माण कराया था। उन्होंने ग्रामीणों के मन में जल और जीव संरक्षण के ऐसे अंकुर बोए जिसका आज की पीढ़ी भी पालन कर रही है।

नहीं सूखता कभी तालाब - गांव वालों की जागरूकता का नतीजा है कि इस तालाब का पानी कभी नहीं सूखता। साबुन लेकर नहाने और कपड़े आदि धोने की पूर्ण मनाही है। तालाब की जमीन का अतिक्त्रमण भी नहीं किया गया है। एक बुजुर्ग कहते हैं कि उनके पूर्वज जानकी पांडेय भले ही आज नहीं हैं, परंतु उनकी सीख याद है। वह कहते थे भगवान किस रूप में आ जाएं, कोई नहीं जानता। वह अक्सर भगवान के मीन अवतार की चर्चा करते थे और इसी भाववश मछलियों को बचाने की पहल की। मछलियों के लिए दाना डालना उनकी दिनचर्या में था।

कफन देकर दफन की परंपरा - ग्रामीणों की मानें तो जबसे तालाब बना है किसी ने यहां मछली नहीं मारी। मछलियों की स्वभाविक मौत के बाद उन्हें कफन देकर मिट्टी में दफन करने की परंपरा भी शुरू की गई। अंतिम संस्कार के वक्त गांव के लोग इकट्ठा होकर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

कहते हैं जानकार- नदियों की पारिस्थितिकी पर शोध कर चुके संजय कुमार कहते हैं कि प्राचीन समय में जल और जलीय जीवों को बचाने के लिए सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं का सहारा लिया जाता था। अब परंपराओं के निर्वहन के प्रति लोगों के विमुख होने से जीव और पशु-पक्षी विलुप्त हो रहे हैं। इसका असर पर्यावरण संतुलन और पारिस्थितिकी पर पड़ रहा है। मछलियां न केवल जल शुद्ध रखती हैं, बल्कि जलीय पौधों को भी इनसे लाभ पहुंचता है।

ब्रजेश पाठक

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