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चार सौ वर्ष पुराने मंदिर से जुड़ी हैं लोगों की आस्था

शहर से किलोमीटर दूर शंभूगंज प्रखंड में अवस्थित तेलडीहा दुर्गा मंदिर तीन प्रांतों के लोगों की आस्था का केंद्र है। बिहार, झारखंड व पश्चिम बंगाल से लोग यहां मां की आराधना के लिए पहुंचते हैं। बांका व मुंगेर की सीमा पर अवस्थित इस मंदिर तक पहुंचने के लिए दोनों ओर से बस रूट है।

By Edited By: Published: Thu, 18 Oct 2012 11:02 AM (IST)Updated: Thu, 18 Oct 2012 11:02 AM (IST)
चार सौ वर्ष पुराने मंदिर से जुड़ी हैं लोगों की आस्था

शंभूगंज [बांका]। शहर से किलोमीटर दूर शंभूगंज प्रखंड में अवस्थित तेलडीहा दुर्गा मंदिर तीन प्रांतों के लोगों की आस्था का केंद्र है। बिहार, झारखंड व पश्चिम बंगाल से लोग यहां मां की आराधना के लिए पहुंचते हैं। बांका व मुंगेर की सीमा पर अवस्थित इस मंदिर तक पहुंचने के लिए दोनों ओर से बस रूट है।

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जानकारी के अनुसार बंगाल के नदिया शांतिपुर जिले के दाल पोसा गांव के स्वर्गीय हरिवल्लभ दास ने तांत्रिक विधि से सन 1603 में मंदिर की स्थापना की थी। आज भी उन्हीं के वंशज मंदिर के मेढ़पति हैं। पूजा की सारी व्यवस्था करते हैं। नवरात्र के मौके पर भगवती की पूजा बांग्ला रीति-रिवाज से होती है। यहां हर वर्ष स्थापित होने वाली प्रतिमा का स्वरूप बदलता रहता है। प्रतिमा का निर्माण मूर्तिकार करते हैं, परंतु सिर का भाग मेढ़पति के परिवारवाले ही बनाते हैं। एक ही मेढ़ पर भगवती के साथ-साथ कृष्ण, काली, सरस्वती, गणेश व भगवान शंकर की प्रतिमा स्थापित की जाती है।

छत्रहार पंचायत की बडुआ नदी के किनारे स्थित तेलडीहा मंदिर पूर्व में खपरैल का था। अब पक्का बन चुका है, किंतु मंदिर के अंदर की जमीन व प्रतिमा पिंड आज भी मिट्टी के ही हैं। मंदिर में मां भगवती को पहली बलि मेढ़पति द्वारा बंद मंदिर में मां के प्राचीन खडग़ से ही दी जाती है। मंदिर में मां भगवती के साथ भगवान शंकर की प्रतिमा भी होने से प्रथम पूजा के लिए प्राचीन काल से ही लाखों श्रद्धालु यहां जलाभिषेक करने आते हैं। प्रथम एवं द्वितीय पूजा को मां भगवती को 108 बेलपत्र से आहूति एवं क्षागर की बलि दी जाती है। क्षागर की बलि के साथ मंदिर के पट खुलते हैं। अष्टमी को डलिया चढ़ाने वालों की भारी भीड़ रहती है। जबकि नवमी को बलि के साथ-साथ बच्चों का मुंडन कराने वाले श्रद्धालुओं की भीड़ भी यहां जुटती है। सप्तमी से नवमी पूजा तक यहां 30 हजार से अधिक बकरों व भैसों की बलि चढ़ाई जाती है। वहीं विजयदशमी को 11 कुंआरी कन्याओं को भोजन कराया जाता है।

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