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अपना भाव हमेशा स्वच्छ रखें

दैवी संपदा अपने जीवन में सबसे बड़ी संपदा है। किसी बात के लिए आग्रह नहीं, किसी व्यक्ति के लिए आग्रह नहीं, किसी भाव के लिए आग्रह नहीं, अर्थात जीवन मुक्त हो जाने की पहली सीढ़ी है दैवी संपदा।

By Edited By: Published: Fri, 28 Dec 2012 11:20 AM (IST)Updated: Fri, 28 Dec 2012 11:20 AM (IST)
अपना भाव हमेशा स्वच्छ रखें

दैवी संपदा अपने जीवन में सबसे बड़ी संपदा है। किसी बात के लिए आग्रह नहीं, किसी व्यक्ति के लिए आग्रह नहीं, किसी भाव के लिए आग्रह नहीं, अर्थात जीवन मुक्त हो जाने की पहली सीढ़ी है दैवी संपदा। गीता के सोलहवें अध्याय के प्रारंभिक तीन श्लोकों में दैवी संपदा के गुणों पर प्रकाश डाला गया है। आसुरी संपदा दुर्योधन में है और दैवी संपदा अर्जुन में है। अर्जुन शब्द का अर्थ भी उ”वल ही होता है। प्रभु श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है कि अर्जुन को दैवी संपदा प्राप्त हो गई है। हम पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि की पूजा करें। प्रात: उठने पर धरती को हाथ से छूकर प्रणाम कीजिए। प्रात:काल सूर्य भगवान का दर्शन करें, जल अर्पण करें। गुरु, शिक्षा और ज्ञान देता है, उसकी पूजा करें। पूजा माने सत्कार। बोलने में वाणी का संयम रखें। जो बात बोलने लायक न हो तो उसे अपनी जीभ से रोक लें। जीभ को रोकने में जो ताकत लगानी पड़ती है- उसका नाम तप है। कश्यप-संहिता में लिखा है कि सच बोलिए, अपने हित की बात ज्यादा नहीं, दूसरे के हित की बात ज्यादा हो। हमें सदा खुश रहने का प्रयास करना चाहिए। मन में व्यर्थ की बातें न सोचना भी एक तपस्या है। हम अपना भाव हमेशा स्वच्छ रखें।

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किसी के प्रति अपना मन बिगाड़ें नहीं। अपने भाव को भी हम शुद्ध रखने का प्रयास करें। किसी को पापी मानने का भाव नहीं रखना चाहिए, कारण पाप-पुण्य तो अपने-अपने संस्कार के अनुसार होता है। गृहस्थ के लिए पुण्य है दान, संन्यासी के लिए अपरिग्रह त्याग। सत्य जो है वह अपनी आत्मा है। मान्यताएं भी कभी-कभी पाप का रूप धारण कर लेती हैं। रूढि़यां भी पाप हो जाती हैं यदि उन्हें समझे बिना अपना लिया जाए। हम तपस्या करके ब्रंा ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। गीता माता श्रीकृष्ण के हृदय की संस्मृति है। मानव देह में आत्मा के रूप में परमात्मा रहता है। न तो जागृत अवस्था वास्तविक है और न ही स्वप्नावस्था। हम अपने जीवन को दैवी संपदाओं से परिपूर्ण करके इसे सार्थक और सफल बना सकते हैं।

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