स्वैच्छिक सेवा का सत्कर्म
स्वैच्छिक सेवा को ही अध्यात्म में निष्काम कर्म कहा जाता है। इससे समाज और देश तो सुधरता ही है, व्यक्ति का भीतरी विकास भी होता है। डॉ. सज्जन सिंह का आलेख..
हम अक्सर यह सुनते हैं कि देश प्रगति कर रहा है। शिक्षा, व्यवसाय, तकनीक का विस्तार हो रहा है, देश के कोष में बढ़त हो रही है। लेकिन अगर आप समाज की स्थिति देखें, तो परिदृश्य उलट है। चारों तरफ अनाचार बढ़ रहा है। गरीब और ज्यादा गरीब हो रहे हैं। ज्यादातर लोग सिर्फ अपना भला चाहते हैं, दूसरों की और देश की उन्हें परवाह नहीं। अनाचार, गरीबी और स्वार्थपरता का समाधान स्वैच्छिक सेवा में है। यह एक ऐसा मानवीय मूल्य है, जिससे न सिर्फ समाज और देश का स्वरूप निखरता है, बल्कि व्यक्तिगत रूप से भी आत्मिक विकास में लाभ होता है। स्वैच्छिक सेवा से नए मित्र बनते हैं, संबंध जुड़ते हैं, कार्यकुशलता बढ़ती है, अवसाद दूर होता है और शरीर स्वस्थ रहता है।
स्वैच्छिक सेवा मानव और प्रकृति में सृष्टि के उद्भवकाल से ही निहित है। सबसे प्राचीन आर्य संस्कृति के जीवन दर्शन और श्रुतियों में यह विद्यमान है। ऋषि और संत सदैव ही स्वैच्छिक सेवा की प्रतिमूर्ति रहे। वेद व्यास, आदि शंकराचार्य, ईसा मसीह, पैगंबर मोहम्मद साहब, गौतम बुद्ध, स्वामी रामतीर्थ, रामकृष्ण परमहंस, गुरु नानक, महात्मा गांधी, स्वामी चिन्मयानंद और मदर टेरेसा, सभी ने स्वैच्छिक सेवा को ही सर्वोपरि माना। इनका पूरा जीवन समाज के हित के लिए ही था। इतना ही नहीं, यदि हम प्रकृति को देखें, तो सूर्य, चंद्र, वृक्ष, वनस्पतियां, सभी मानव के लिए जीवनदायी हैं। प्रकृति हो या संत, हमें कुछ न कुछ देते रहते हैं, जिसके एवज में किसी चीज की अपेक्षा नहीं करते। यही स्वैच्छिक सेवा है, जिसे अध्यात्म में निष्काम कर्म की संज्ञा दी गई है।
निष्काम भाव से सेवा को जीवन में उतारने की प्रक्रिया ही स्वैच्छिक सेवा है। सेवक को अपने कार्य के एवज में पारितोषक या मासिक भत्ता मिलता है, लेकिन वास्तविक सेवा तो निष्काम कर्म है। यह ऐसा कर्मयोग है, जिसमें कर्म के बदले में किसी भी तरह के फल की अपेक्षा नहीं की जाती।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने स्वैच्छिक सेवा को इस तरह परिभाषित किया है- वह कर्म, जो किसी भी वित्तीय उपलब्धि की अपेक्षा न रखता हो। वह कर्म, जो स्वेच्छा से और बिना किसी प्रलोभन या दबाव के किया जाए। वह कर्म, जो मात्र परिजनों या मित्रों के लिए न हो, अपितु सार्वभौमिक समाज के लिए हो।
कर्म प्रत्येक जीव के लिए अनिवार्य है। कर्म जीवन की अभिव्यक्ति है। जब तक जीवन है, कर्म भी है। जब कोई व्यक्ति इच्छा-प्रेरित सकाम कर्म करता है, तो उसमें उसकी कामनाएं बसती हैं। कामनाएं इच्छा की स्त्रोत हैं, जो व्यक्ति को वह कर्म करने के लिए प्रेरित करती रहती हैं। इस प्रक्रिया में कामनाएं दृढ़ होती हैं और व्यक्ति उनसे बंध जाता है। यही कर्म का बंधन है। सकाम कर्म में व्यक्ति कहता है- मैं यह चाहता हूं.. यह मुझे अच्छा लगता है। लेकिन जो अच्छा लगता है, जरूरी नहीं कि वह उचित हो। जो कर्म निष्काम भाव से किया जाता है, उसकी कामनाएं बंधनकारी नहींहोतीं।
निष्काम कर्म का उद्देश्य समष्टिगत होता है। वह बड़े उद्देश्य के लिए होता है। जिससे कुछ पाने की अपेक्षा नहीं होती। साथ ही, कर्म के परिणाम के लिए पूर्वाग्रह भी नहीं होना चाहिए। काम में भले ही आप सफल हों या असफल, परिणाम को ईश्वर का प्रसाद समझ कर स्वीकार करना चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि निष्काम कर्म के लिए कर्ता होने के भाव को छोड़ना पड़ेगा। मैं यह काम कर रहा हूं, यह बोध मन में जागा, तो अहंकार पैदा होता है। कर्ता-भाव को छोड़कर कर्म करना कठिन तो लगता है, लेकिन शास्त्र इसकी आसान प्रक्रिया भी बताते हैं। इसके अनुसार, यह सोचें कि मैं जो कर्म कर रहा हूं, वह ईश्वर द्वारा प्रदान शक्ति के कारण ही कर रहा हूं। अर्थात ईश्वर मेरे माध्यम से कार्य कर रहा है। इससे अहंकार काफी शांत हो जाता है। हम जो भी कर्म करें, पूरी लगन से करें और उसका परिणाम ईश्वर पर छोड़ दें।
भारतीय मनोविज्ञान इंसान को तीन श्रेणियों में बांटता है। पहली श्रेणी में शांत प्रकृति के, कुशाग्र बुद्धि और धार्मिक आते हैं। दूसरी श्रेणी में वे व्यक्ति हैं, जिनमें इच्छाएं बहुत हैं और वे इनकी पूर्ति में क्रियाशील रहते हैं। ये व्यक्ति अपनी इच्छापूर्ति के लिए कुछ भी कर सकते हैं। ये सुविधाभोगी और लोभी होते हैं। तीसरे प्रकार के लोग आलसी, प्रमादी और मंद होते हैं। उनके कर्म मोहवश और असावधानी से युक्त होते हैं। प्रथम श्रेणी के व्यक्ति में सत्वगुण, दूसरी श्रेणी वालों में रजोगुण और तीसरी श्रेणी वालों में तमोगुण की प्रधानता मानी जाती है। ये तीनों गुण प्रत्येक व्यक्ति में होते हैं, परंतु अनुपात अलग होता है। जिस गुण की प्रधानता होती है, वैसी ही व्यक्ति की प्रकृति भी होती है। निष्काम सेवा से सत्वगुण की अभिवृद्धि होती है।
सभी जीव सुख और शांति की खोज करते हैं। वे अपेक्षा करते हैं कि उनके पास सुख भरपूर और सदा के लिए हो। हमारा मूल स्वरूप ही सत, चित और आनंद है। आनंद की निष्पत्ति निष्काम कर्म करने से ही होती है। निष्काम कर्म करने से रजस और तमस घटते हैं और सत्व बढ़ता है। ऐसे अच्छे व्यक्ति ही समाज को अच्छा बनाते हैं। यही मानव धर्म है।
रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं-
परहित सरिस धर्म नहिं भाई।
परपीड़ा सम नहिं अधिमाई।।
अर्थात लोगों के हित में काम करना सबसे बड़ा धर्म है, वहीं पीड़ा पहुंचाना सबसे निकृष्ट काम। ऐसे में हमें निष्काम कर्म या स्वैच्छिक सेवा को अपनाकर अपने देश और समाज के साथ-साथ अपने आंतरिक विकास की ओर भी अग्रसर होना चाहिए।
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