धर्मकूप क्षेत्र में पितरों को अक्षय तृप्ति
काशी में पितरों को तृप्ति प्रदान करने के लिए तमाम स्थल और विधि विधान भी हैं। काशी की ऐतिहासिक और धार्मिक विरासत से जुड़े इन समूहों में मीरघाट स्थित धर्मकूप क्षेत्र भी है जहां धर्मेश्वर महादेव की पूजा-अर्चना खासतौर से यमराज की यमयातनाओं से मुक्ति दिलाती है।
वाराणसी। काशी में पितरों को तृप्ति प्रदान करने के लिए तमाम स्थल और विधि विधान भी हैं। काशी की ऐतिहासिक और धार्मिक विरासत से जुड़े इन समूहों में मीरघाट स्थित धर्मकूप क्षेत्र भी है जहां धर्मेश्वर महादेव की पूजा-अर्चना खासतौर से यमराज की यमयातनाओं से मुक्ति दिलाती है।
काशीखंड के अनुसार यहां श्राद्ध करने से पितरों को अक्षय तृप्ति मिलती है। पुराण में कहा गया है कि धर्मेश्वर के निकट कूप के जल से स्नान कर श्राद्ध करने से गया श्राद्ध के समान फल मिलता है। इतना ही नहीं कूप के जल से स्नान के बाद विश्वपादुका गौरी के दर्शन से ब्रंाहत्या जैसे दोष से मुक्ति मिल जाती है। मान्यता यह भी है कि यहां सावित्री ने वटवृक्ष के नीचे सत्यवान की दीर्घायु के लिए तपस्या की थी। वटवृक्ष तो अब नहीं है लेकिन उसकी शाखा से निकले वृक्ष चश्मदीद गवाह के रूप में आज भी मौजूद हैं।
दु:ख इस बात का है कि बढ़ती आबादी और घटती चौहद्दी, ढहते-खंडित होते मंदिर, उनकी दीवारों की चौड़ी होती दरारें, चतुर्दिक गंदगी इस बात के गवाह हैं कि गहरी आस्था से जुड़ा यह विरासत अब सिमटता और अपना मूल स्वरूप खोता जा रहा है। क्षेत्र के वयोवृद्ध पं. हृदय नारायण मिश्र इस धर्मपीठ क्षेत्र की उपेक्षा पर गहरी चिंता व्यक्त करते हैं। कहते हैं, यह तप स्थल है। पहले यह काफी विस्तृत क्षेत्र में था। अब यह न केवल सिमटता जा रहा है वरन देखरेख के अभाव में ढहता भी जा रहा है। पुराणों का हवाला देते हुए बताया कि वृत्तासुर को मारने के बाद सूर्य पुत्र यम ने ब्रंाहत्या के दोष निवारण के लिए यहां लंबे समय तक शिव की आराधना की। प्रसन्न हो कर शिव ने अपना त्रिशूल दिया और उसी से कूप खोदने को कहा। बताया कि इस कूप के जल से स्नान करने के बाद उन्हें ब्रंादोष से मुक्ति मिल जाएगी। ब्रंादोष से मुक्ति पाने के बाद यम (धर्मेश्वर महादेव) के रूप में धर्मकूप क्षेत्र में स्थापित हुए।
मिश्र ने कहा कि ऐतिहासिक कूप और उससे जुड़े पौराणिक मंदिरों को उसके महत्व के अनुरूप विकसित किया जाना जरूरी हो गया है ताकि पूवर्जो की इस थाती को अगली पीढ़ी को सिपुर्द किया जा सके और काशी की यह सनातन संस्कृति पीढ़ी-दर-पीढ़ी जीवंत बनी रहे।
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