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जैसे हम, वैसे सब

हम नहीं चाहते कि कोई हमें अपशब्द कहे, लेकिन हम दूसरों को अपशब्द कहते हैं। हम चाहते हैं कि लोग हमारे दुख-दर्द में शामिल हों, लेकिन हम किसी के दुख दर्द में शामिल नहीं होते..। जबकि हमें लोगों से वैसा ही व्यवहार करना चाहिए, जिसे हम स्वयं पसंद करते हैं।

By Edited By: Published: Tue, 17 Apr 2012 05:22 PM (IST)Updated: Tue, 17 Apr 2012 05:22 PM (IST)
जैसे हम, वैसे सब

हम नहीं चाहते कि कोई हमें अपशब्द कहे, लेकिन हम दूसरों को अपशब्द कहते हैं। हम चाहते हैं कि लोग हमारे दुख-दर्द में शामिल हों, लेकिन हम किसी के दुख दर्द में शामिल नहीं होते..। जबकि हमें लोगों से वैसा ही व्यवहार करना चाहिए, जिसे हम स्वयं पसंद करते हैं। तभी अच्छे समाज का निर्माण हो सकता है..

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महाभारत में कहा गया है कि जो बात तुम अपने लिए पसंद नहीं करते, उसका आचरण औरों के प्रति मत करो। यह महान सूत्र सभी धर्मो में आचरण का आधार वाक्य हो सकता है। साथ ही यह भी प्रकट करता है कि भारतीय दर्शन मानवता के प्रति कितना सजग और निष्ठावान रहा है। स्वामी विवेकानंद ने इस भाव को आत्मनिरीक्षण के आधार पर स्वीकार करते हुए कहा कि हे अमृतपुत्रो! आप आनंद के महाकोष हैं, आपके भीतर आनंद की तरंगें हिलोरें ले रही हैं। उन तरंगों को बाहर प्रवाहित होने दो। प्रत्येक प्राणी के मानस पटल तक आपके भीतर का आनंद पहुंचे। देखो, आपके पास असीम शक्ति है, आप महाशक्ति के केंद्र हैं। उस शक्ति को बाहर निकलने दें, निर्धनों पीडि़तों और दुखियों के कल्याण के लिए उस शक्ति को लगा दें। समाज को आनंदमय और शांतिमय होने दें। किसी अन्य साधन की आवश्यकता नहीं है। कुछ लोगों की मान्यता है कि पृथ्वी नाग के फन पर टिकी है, लेकिन यह बात विज्ञान सम्मत नहीं है। इतना तय है कि पृथ्वी मानवता के पवित्र भावों पर अवश्य टिकी है। यदि ये भाव शत-प्रतिशत समाप्त हो जाते हैं, तो धरती की रक्षा कोई नहीं कर सकता। यह भी एक खगोलीय सत्य है कि किसी भी एक ग्रह का असंतुलन संपूर्ण ब्रšांड को असंतुलित कर देता है। निष्कर्ष यह है कि संपूर्ण चर-अचर, जिसमें पृथ्वी भी सम्मिलित है, मानवता पर रुकी हुई है। हमें निराश होने की आवश्यकता नहीं है। मानव मूल्यों के प्रति आस्थावान लोग आज भी हैं। जरूरत इस बात की है कि ये संस्कार सार्वभौमिक हो जाएं।

भगवान बुद्ध ने कहा था कि आपकी नेकी आप तक सीमित न रहे। प्रयास कीजिए कि आप जैसे कम से कम पांच व्यक्ति नेकी और सेवा के रास्ते पर चलें। फिर से पांच व्यक्ति भी पांच-पांच व्यक्तियों की सेवा कर्म और नेकी के लिए प्रेरित करें। यह क्रम रुकना नहीं चाहिए। भगवान महावीर ने कहा है कि प्राणिमात्र को अपना मित्र, सखा-सहोदर मानना चाहिए। यदि ये भाव मन में हैं और व्यवहार में दिखाई देते हैं, तो निश्चित तौर पर अहिंसा का वातावरण तैयार हो जाएगा। पशु भी हिंसात्मक प्रवृत्ति का त्याग कर देंगे। यह प्रयोग कुछ जैन मुनियों ने किया भी है। उन्होंने शेरों के शावक पाले और उन्हें शाकाहार खिलाना आरंभ किया। कुछ समय पश्चात उन्होंने शाकाहार को ही अपना भोजन बना लिया। अच्छे लोगों की संगति में बुरे लोग भी सुधर जाते है।

संसार में संकट तब पैदा होता है, जब व्यक्ति किसी दूसरे से भय करता है। भ्रम की स्थिति कभी उत्पन्न न हो। कोई ऐसा धर्म नहीं, जहां मानवता को महत्व न दिया गया हो। भारतीय धर्मो का आधार ही मानवता है। अत: दानवी और पाशविक प्रवृत्तियों के विपरीत एक ऐसा समाज का निर्माण हमारे संतों और विचारकों का ध्येय रहा है, जहां पशु के प्रति भी प्रेम हो, उसे भी न्याय मिले। भगवान राम जब लंका से वापस आने के पश्चात महाराज पद पर आसीन हुए, तो उन्होंने स्पष्ट आदेश दिया था कि किसी पशु के साथ भी अन्याय न हो। संत-विचारक न केवल मानवाधिकारों अपितु पशुओं के प्राकृतिक अधिकारों के प्रति भी अत्यंत सजग रहा करते हैं। एक कथा के अनुसार, उन्होंने अपने भाई लक्ष्मण जी को यह दायित्व सौंपा था कि वे ध्यान रखें कि किसी के साथ भी पक्षपात, अन्याय या शोषण न हो, उसमें चाहे मानव हो या पशु, किसी प्रकार का भेद नहीं होना चाहिए। रामराज इसलिए ही कहा जाता है, क्योंकि वहां मानव मूल्यों की प्रतिष्ठा थी और लोकहित का व्यापक संकल्प।

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