जहां साहित्य दिलों में धड़कता था- देहरादून
<p>जी हां, यह देहरादून के उसी डालनवाला की बात है जिस पर कुर्रतुल-ऐन हैदर ने एक कहानी लिखी थी डालनवाला। डालनवाला यानी बडे-बडे हरियाए अहातों में बने सुंदर बंगलों वाला, देहरादून का सबसे खूबसूरत रिहायशी इलाका। इसी डालनवाला के एक चौराहे के नुक्कड पर स्थित है रामऔतार की दुकान। पचास के दशक में यह दुकान, हुनरमंद और शौकीन लोगों के बैठने की एक खास जगह थी। </p>
[जितेन ठाकुर]। जी हां, यह देहरादून के उसी डालनवाला की बात है जिस पर कुर्रतुल-ऐन हैदर ने एक कहानी लिखी थी डालनवाला। डालनवाला यानी बडे-बडे हरियाए अहातों में बने सुंदर बंगलों वाला, देहरादून का सबसे खूबसूरत रिहायशी इलाका। इसी डालनवाला के एक चौराहे के नुक्कड पर स्थित है रामऔतार की दुकान। पचास के दशक में यह दुकान, हुनरमंद और शौकीन लोगों के बैठने की एक खास जगह थी। हास्य कवि कुल्हड गीतकार वीर कुमार अधीर और कवि- लेखक उमाशंकर सतीश सहित कई पढने-पढाने वाले लोग यहां इकज्ञ होते तो गीत-गजल की महफिल शुरू हो जाती। सामने चाय में उबाल आता और इधर बातों में। महज दो-ढाई बेंच की लम्बाई वाला यह खोखा खूब आबाद रहता।
बातों के बीच लोगों को रोक-रोक कर कुल्हड जी कहते मेरी कविता तो सुन लो पार्टनर। वहां इकज्ञ लोग मुस्कुराकर उत्तर देते, अभी मूड नहीं है कुल्हड जी, फिर कभी सही। परन्तु कुल्हड जी मायूस नहीं होते और अपनी कविता सुनाकर ही मानते। कुछ समय बाद कुल्हड जी की हास्य कविताओं की किताब साईकिल एक्सीडेंट चल निकली और उन्हें बडे-बडे कवि सम्मेलनों के आमंत्रण मिलने लगे। अब दुकान में जमा लोग जब कविता की फरमाईश करते तो कुल्हड जी मुंह घुमाकर कहते, अभी मूड नहीं है पार्टनर, फिर कभी सही। और चाय सुडकने लगते।
यह वह समय था जब इस शहर के एक कोने से उठी पदचाप शहर के दूसरे कोने तक सुनी जा सकती थी। और आज जैसी भीड और आपाधापी की तो उस समय कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। खुशीराम लाइब्रेरी और बाद में ज्ञानलोक जैसे पुस्तकालय पढने-पढाने वालों के लिए किसी वरदान से कम नहीं थे। लिखने वालों के लिए साहित्य- संसद की नियमित बैठकें होतीं जिनमें रचनाओं पर गम्भीर बात-चीत की जाती। हिन्दी साहित्य समिति प्रत्येक वर्ष एक बडा कवि सम्मेलन करवाती जिसमें देश के नामी कवि-गीतकार आते। यह कवि सम्मेलन रात के पहले पहर से आरम्भ होकर पौ फटने तक चलते। सत्तर के दशक में देहरादून के कुछ युवा रचनाकारों ने मिलकर एक और साहित्यक संस्था का निर्माण किया- संवेदना। स्व. नवीन नौटियाल के यहां संवेदना की बैठकें होती और बैठकों में इतने रचनाकार आते कि बैठने की जगह कम पड जाती। उन दिनों कवि गोष्ठियों की धारा अविरल बह रही थी। किसी के गृह प्रवेश होता, मुण्डन या कोई अन्य पारिवारिक आयोजन होता- कवि गोष्ठी का आयोजन किया ही जाता। एक न एक बडी गोष्ठी का आयोजन, किसी न किसी रूप में, किसी न किसी के घर में प्रतिमाह होता। शायद यही कारण थे कि यहां के लेखकों में निरंतर लिखने की प्रवृत्ति बनी रही और अच्छा लिखने की एक मूक प्रतिद्वंद्विता हमेशा चलती रही।
साहित्य संसद की नियमित बैठकों का श्रेय स्व. ब्रšादेव जी को ही जाता है। फोटोग्राफी में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त ब्रšादेव जी को साहित्य से भी गहरा लगाव था। साहित्य- संसद से अलग भी उनके यहां साहित्यकारों की बैठकें होती रहतीं। बाहर से आने वाले रचनाकारों के सम्मान में भोज आयोजित होते गोष्ठियां होतीं पर सब इतना अनौपचारिक और सहज होता मानो हम अपने ही घर में बैठ कर बोल- बतिया रहे हैं। संगोष्ठी की ओढी हुई गंभीरता मैंने उनके यहां कभी नहीं देखी। ऐसे ही एक आयोजन में अंग्रेजी के लेखक रस्किन बांड भी शामिल थे। किसी ने उनसे पूछा आप तो गढवाल और कुमाऊं बहुत घूमे हैं, आपको दोनों में क्या अंतर लगता है?
रस्किन बांड कुछ देर चुप रहे फिर पूरी गंभीरता से बोले, अगर आपकी गाडी दो सौ फुट नीचे गिरे तो समझिए आप गढवाल में हैं और अगर बीस फुट नीचे गिरे तो समझिए कुमाऊं में। पूरा कमरा ठहाकों से भर गया। व्यंग्यकार स्व. रवीन्द्रनाथ त्यागी की किस्सागोई इन बैठकों की जान थी। त्यागी जी के किस्सागोई का अंदाज इतना कमाल था कि घंटों तक मंत्रमुग्ध हुए लोग उनके किस्से सुनते रहते।
यूं तो डिलाइट और टिपटॉप ऐसे रेस्टोरेंट रहे हैं जहां रचनाकारों का जमावडा लगा करता था, पर वैनगार्ड साप्ताहिक का दफ्तर तो जैसे देहरादून के साहित्यकारों के लिए एक जरूरी जगह थी। अंग्रेजी और हिन्दी में छपने वाला यह छोटा सा चार पन्नों का अखबार, हिन्दी के संपादक स्व. सुखवीर विश्वकर्मा उर्फ कवि जी के कारण अपना विशेष स्थान रखता था। नए लिखने वालों के लिए यह किसी तीर्थ से कम नहीं था। कवि जी बडे मनोयोग से नए रचनाकारों की रचनाएं सुनते उनमें संशोधन करते और उन्हें छपने-छपवाने में भी सहायता करते। यहां साहित्यकारों की लम्बी बैठकें चलतीं, बहस-मुबाहसे होते और लिखने-लिखाने पर बेहद गम्भीरता से बात की जाती। ओम प्रकाश बाल्मीकि, धीरेन्द्र अस्थाना,सूरज प्रकाश, दिनेश थपलियाल, और स्वयं मैं,भी इन रचनाओं में शामिल रहे हैं जिन्हें कविजी के स्नेह और प्रोत्साहन से दिशा मिली।
इस तरह सत्तर और अस्सी के दशकमें साहित्य की अविरल धारा देहरादून में प्रवाहित हो रही थी। साठ के दशक में देहरादून के कथाकारों का कथा-संग्रह आया था अभियान और सत्तर के दशक में एक और सामूहिक कथा- संग्रह प्रकाशित हुआ था एक अभियान और। 1971 के भारत-पाक युद्ध के समय मनोहर लाल उनियाल श्रीमन और सुखवीर विश्वकर्मा के सम्पादन में देहरादून के कवियों का एक यादगार कविता संग्रह छापा गया था दहकते स्वर। जिसका विमोचन प्रसिद्ध साहित्यकार रामकुमार वर्मा ने किया था। अस्सी के दशक में फिर एक कविता संग्रह प्रकाशित हुआ इन दिनों जिसमें देहरादून के कवियों की प्रतिनिधि कविताओं का संकलन किया गया था। साहित्य सदन से राधा कृष्ण कुकरेती की, पर्वतीय सरोकारों से जुडी कहानियों कामहत्वपूर्ण संग्रह प्रकाशित हुआ। इस प्रकार शहर में किसी न किसी रूप में साहित्यक सक्रियता बनी ही रहती। आज भी देहरादून से सम्पादित होने वाली शब्द योग लोक गंगा, उत्तरांचल युगवाणी साहित्य प्रभा, हलंत और सरस्वती सुमन जैसी पत्रिकाओं ने यहां साहित्य का माहौल बनाया हुआ है। यद्यपि साहित्य संसद की बैठकें स्थगित हो चुकी हैं, परंतु संवेदना, नवाभिव्यक्ति, हिन्दी साहित्य समिति और प्रगतिशील क्लब जैसी संस्थायें आज भी मासिक संगोष्ठियों के सहारे साहित्य की मशाल जलाए हुए हैं।
आज आचार्य गया प्रसाद शुक्ल और आचार्य कृष्ण कुमार कौशिक जैसे कविगुरु हमारे बीच नहीं हैं। कवि सम्मेलनों में भाषा के लावण्य का जादू बिखेरने वाले संचालक गिरिजाशंकर त्रिवेदी भी शेष नहीं रहे। चौथा सप्तक के यशस्वी कवि- गीतकार अवधेश कुमार और गजल के नये तेवरों के साथ आए हरजीत सिंह भी विदा हो चुके हैं। कथा-जगत में लम्बे समय तक अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाली रचनाकार शशिप्रभा शास्त्री, हरिदत्त भ˜ शैलेश, विद्यासागर नौटियाल और कुसुम चतुर्वेदी की भी स्मृति ही शेष रह गई है परंतु आज भी देहरादून में वरिष्ठ साहित्यकार सृजनरत हैं, जिन्होंने साठ के दशक से निरंतर अपनी कलम की स्याही को सूखने नहीं दिया। बाद में अनेक प्रतिष्ठित साहित्यकारों के देहरादून में ही बस जानेसे भी देहरादून का साहित्य जगत समृद्ध हुआ है। यह देहरादून के साहित्य जगत की निरंतरता एवं एकजुटता का ही प्रमाण है कि यहां केवल राष्ट्रीय स्तर के कवि सम्मेलन ही आयोजित नहीं हुए बल्कि समांतर कथा संगोष्ठी, कथाक्रम और संगमन जैसे राष्ट्रीय स्तर के कथा- आयोजन भी सम्पन्न हो चुके हैं। हरिवंश राय बच्चन, शमशेर और कमलेश्वर, कृष्णा सोबती, राजेन्द्र राव, श्रीप्रकाश मिश्र और अशोक गुप्ता जैसे साहित्यकारों का देहरादून से गहरा संबंध रहा है। कमलेश्वर ने तो अपने उपन्यास कितने पाकिस्तान के लेखन की शुरुआत ही देहरादून से की थी।
आज भी राजेश सकलानी, नवीनकुमार नैथानी, जय प्रकाश नवेन्दु, विजय गौड, जितेन्द्र भारती, दिनेशचन्द्र जोशी, डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र, वीणापाणी जोशी, मुकेश नौटियाल, शशिभूषण बडोनी, राजेश पाल, गीता गैरोला, बीना बेंजवाल, बसंती मठवाल, सविता काला, भारती पाल, कमलेश्वरी मिश्रा, संगीता शाह, जयंती, हेमचन्द्र सकलानी, चमनलाल प्रद्योत, रूपनारायण सोनकर, मुनीराम सकलानी, दिनेश चमोला, अशोक आनंद, तापस चक्रवर्ती, रामप्रसाद डोभाल, राजनारायण राय, मुनीश सक्सेना, जय कुमार भारद्वाज, डी. एल. खन्ना, अतुल शर्मा, नदीम बर्नी, प्रतिभा श्रीवास्तव इत्यादि अनेक समर्थ रचनाकार अपनी रचनात्मक प्रतिबद्धता में देहरादून साहित्य जगत को निरंतर समृद्ध कर रहे हैं।
यह सच है कि देहरादून की आबोहवा आज प्रदूषित हो चुकी है, कोलाहल की अधिकता ने वातारण की मोहक नीरवता को डस लिया है। परन्तु इन विसंगतियों के बाद भी अतीत के झरोखों से झांकता हुआ साहित्य का जो निर्मल चेहरा हमारी स्मृतियों में बसा है वह आज भी साहित्य की धारा के अविरल प्रवाहित होने में प्रेरणा स्नोत की भूमिका निभा रहा है और विश्वास है कि आगे भी नए लिखने वालों के लिए यह प्रेरणा स्नोत सदा बना रहेगा, क्योंकि मूल रूप से देहरादून की साहित्य- संस्कृति से जुडे रचनाकारों के लिए साहित्य आज भी साध्य ही है- साधन नहीं।
4, ओल्ड सर्वे रोड, देहरादून-248001