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अब नहीं वह छप्पर-छानी

आधुनिकता के चोले में मेले में बहुत कुछ खो-सा गया लगता है। वही संगम का तीर, अठखेलियां करतीं गंगा-यमुना की वही लहरें हैं। नहीं दिख रहा है तो कांसा-सरपत की छप्पर छानी और वह तुलसी का बिरवा। तंबुओं की नगरी के अंदर का दृश्य बहुत बदल चुका है। साथ ही बदल चुकी हैं कल्पवास की मान्यताएं और स्वरूप। अब गंगा जल पीना तो दूर, स्नान भी वही करते हैं, जिनकी आस्था गंगा के मैली होने के बाद भी नहीं डिगी है। खुद कल्पवासी भी मानते हैं कि अब आध्यात्मिक शांति से अधिक जोर भौतिक सुख-सुविधाओं पर है।

By Edited By: Published: Sun, 20 Jan 2013 03:15 PM (IST)Updated: Sun, 20 Jan 2013 03:15 PM (IST)

कुंभनगर, [संजीव मिश्र]। आधुनिकता के चोले में मेले में बहुत कुछ खो-सा गया लगता है। वही संगम का तीर, अठखेलियां करतीं गंगा-यमुना की वही लहरें हैं। नहीं दिख रहा है तो कांसा-सरपत की छप्पर छानी और वह तुलसी का बिरवा। तंबुओं की नगरी के अंदर का दृश्य बहुत बदल चुका है। साथ ही बदल चुकी हैं कल्पवास की मान्यताएं और स्वरूप। अब गंगा जल पीना तो दूर, स्नान भी वही करते हैं, जिनकी आस्था गंगा के मैली होने के बाद भी नहीं डिगी है। खुद कल्पवासी भी मानते हैं कि अब आध्यात्मिक शांति से अधिक जोर भौतिक सुख-सुविधाओं पर है।

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माघ मेले में सदियों से कल्पवास की परंपरा रही है। सौर मास के अनुसार मकर संक्रांति से कुंभ संक्रांति तक और चंद्रमास को मानने वाले पौष पूर्णिमा से माघ पूर्णिमा तक यहां कल्पवास करते हैं। यह मान्यता तो अब भी सनातन ही है, किंतु धारणाएं बहुत हद तक बदल चुकी हैं। सुविधाएं बढ़ीं, वैभव बढ़ा और आरामतलबी भी बढ़ गई। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि चारों पुरुषार्थ देने वाला कल्पवास प्रतिवर्ष नया कलेवर ओढ़ता जा रहा है। इससे आहत वही हैं, जो आज भी एक महीने तक संकल्पबद्ध होकर नियमों का पालन करते हैं। पिछले बारह बरसों से कल्पवास कर रहे 70 वर्षीय झूंसी के सुशील कुमार मिश्र उन्हीं में से एक हैं। बदलाव की बात पर वह छूटते ही बोले, अब कितने लोग कल्पवास कर रहे हैं। छप्पर-छानी की जगह स्विस कॉटेज में रह रहे हैं। लालटेन की जगह दूधिया रोशनी मिल रही है। चूल्हा कहीं जलता नहीं। सभी के पास गैस और स्टोव है। अब धरती पर सुख नहीं मिलता, तख्त और चारपाई चाहिए। यही नहीं, रेडियो टेलीविजन की भी व्यवस्था है तंबुओं में। नैनी की रमा देवी बताती हैं कि कल्पवास की अवधि में दूसरे का दिया हुआ कुछ खाना भी नहीं चाहिए, लेकिन इसका पालन भी कम ही लोग कर पा रहे हैं। अब तो मेला मैला हो गया है।

मेला हाइटेक हुआ और स्वरूप बदलता गया

भोपाल के रमाकांत निवारी कहते हैं कि कल्पवास का एक नियम होता था। इंद्रियों पर संयम, एक समय भोजन, कल्पवासी स्वयंपाकी हो या फिर धर्मपत्नी भोजन बनाए, धरती का बिछौना हो, तीन समय स्नान। नित्य कर्म से निवृत्त होकर सूर्य को अ‌र्घ्य देने से कल्पवासियों के दिन की शुरुआत होती थी। नियम यह भी था कि इस काल में असत्य नहीं बोलेंगे, घर-गृहस्थी के बारे में चिंतन नहीं करेंगे। एक माह के लिए मोह-माया से दूर रहकर सिर्फ भगवत भजन, हवन-यज्ञ, यथासंभव दान और ब्राह्मणों को भोजन कराना ही दिनचर्या में शामिल था। अंत में जब कल्पवास पूरा कर श्रद्धालु विदा लेते थे तो साथ में सिर्फ गंगा जल, गंगा की माटी और प्रसाद लेकर ही जाते थे। इसमें अब तब्दीली आ गई है।

यद्यपि कुछ लोग इसे मजबूरी भी बताते हैं। प्रतापगढ़ की जानकी देवी कहती हैं कि नियम तो यह है कि गंगा जल ही पीएं, लेकिन पहले गंगा में सीवर और नाले का पानी थोड़े जाता था। अब तो ज्यादा से ज्यादा आचमन कर लेते हैं। सुल्तानपुर के चंदिका प्रसाद पांडेय भी व्यवस्था के आगे मजबूर हैं, सच पूछिए तो 12 वर्ष तक इस अनुष्ठान को संपन्न करने की हर किसी की कोशिश होती है, पर व्यवस्था देखकर पीड़ा होती है। पहले मेला क्षेत्र में जगह नि:शुल्क मिलती थी, अब बिजली, पानी से लेकर हर आवश्यकता के लिए पैसा चाहिए।

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