पिंडदान से होता पितरों का उद्धार
पितर पूजा अनुष्ठान के अंतर्गत 15वें दिन यों तो श्राद्धकर्म वे सभी करते हैं, जो संपूर्ण सत्रह दिनों तक गया धाम में रहकर पूरी अवधि में यह कर्मकांड संपन्न करते हैं। किंतु एक दिवसीय श्राद्धकर्म संपन्न करने वाले श्रद्धालु इसी दिन विशेष रूप से पिंडदान करते हैं।
गया। पितर पूजा अनुष्ठान के अंतर्गत 15वें दिन यों तो श्राद्धकर्म वे सभी करते हैं, जो संपूर्ण सत्रह दिनों तक गया धाम में रहकर पूरी अवधि में यह कर्मकांड संपन्न करते हैं। किंतु एक दिवसीय श्राद्धकर्म संपन्न करने वाले श्रद्धालु इसी दिन विशेष रूप से पिंडदान करते हैं। इस एक दिवसीय अनुष्ठान के अंतर्गत फल्गु तीर्थ, विष्णुपद तीर्थ तथा अक्षयवट तीर्थ पर पिंडदान की क्रिया संपन्न की जाती है। इन के अतिरिक्त विधान है कि जिनके पितर की मृत्यु-तिथि यह नहीं है, वे मात्र तर्पण, देवदर्शन एवं दीप-दान करें। इससे भी पितर-पूजा का विधान पूर्ण हो जाता है। शास्त्रों में बताया गया है कि पूर्वाहन में फल्गु नदी में स्नान के बाद दूध का तर्पण देकर भगवान विष्णु को पंचामृत स्नान कराया जाए। इसके पश्चात मधु मिश्रित पायस (खीर) को भोजन ब्राहमणों को कराया जाए। अंत में ब्राहमणी घाट पर स्थिति प्राचीन सूर्य मंदिर में सूर्य भगवान तथा यहां स्थित फलकेश्र्र्वर महादेव के दर्शन-पूजन का विधान है। सायं काल में दीपदान भी किया जाता है। इस संबंध में किवदंती है कि इस दिन यमराज अपने लोक को खाली करके सभी पितरों को मनुष्य लोक में भेज देते हैं। मनुष्य लोक में आए प्रेत एवं पितर अपने पुत्रों, संबंधियों तथा वंश के जो भी प्राणी गया धाम में आते हैं, उनसे खीर खाने की कामना करते हैं। इसी कारण उनके निमित्त ब्राहृमणों को खीर खिलाई जाती है। संध्याकाल में नदी तथा मंदिरों में दीप दान किए जाते हैं। इसे पितरों की दीपावली कहते हैं। दीप परम प्रकाश का धोत्तक है और प्रकाश ही परम ज्ञान का पर्याय है। अत: आज दीप-दान करने से पितरों का उद्धार तो होता ही है, साथ ही पितर-पूजा करने वाले को तथा इनके वंशज को ज्ञानवान होने का आशीर्वाद भी प्राप्त होता है।
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