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संक्रांति के स्नान से मिटते हैं पाप

प्रयाग की पावन धरती पर मकर संक्रांति में सूर्य का संचरण महाकुंभ पर अमृत प्राप्ति का महत्वपूर्ण स्थान है जिसे प्राप्त करने के लिये ऋषि, मुनि, संत सज्जन सामान्य जन, अपने पुण्य प्रताप से देवगणों के मध्य पुण्य सलिला त्रिवेणी के तट पर एकत्रित होते हैं। भौतिक शरीर की शुद्धि के लिये

By Edited By: Published: Mon, 14 Jan 2013 03:52 PM (IST)Updated: Mon, 14 Jan 2013 03:52 PM (IST)

प्रयाग की पावन धरती पर मकर संक्रांति में सूर्य का संचरण महाकुंभ पर अमृत प्राप्ति का महत्वपूर्ण स्थान है जिसे प्राप्त करने के लिये ऋषि, मुनि, संत सज्जन सामान्य जन, अपने पुण्य प्रताप से देवगणों के मध्य पुण्य सलिला त्रिवेणी के तट पर एकत्रित होते हैं। भौतिक शरीर की शुद्धि के लिये स्नान, दान, की प्रमुखता में तीर्थराज प्रयाग में स्नान का महत्व अत्यधिक होता है।

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स्नानों का विविधता को संक्रांति स्नान के स्वयं के पाप तथा पूर्णिमा के स्नान में संताप तथा अमावस्या के स्नान में मानसिक पाप-ताप का विनाश होता है। संक्त्रांति के स्नान में पूर्वज जलांजलि से तथा अन्नादि दान से विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है। व्रत पूर्वक स्नान करके यथा सामर्थ्य दान किया जाता है।

स्नान कर्मानुसार विभक्त हो जाता है। चन्द्र, सूर्य, गुरु शनि के विशेष योग में कुंभ पर्व जो मन, आत्मा, पूर्वज तथा शरीर के समस्त पाप का समूल विनाश अमृत जो पौराणिक मान्यता के अनुसार देव-दानव के मंथन से प्राप्त हुआ उसे वितरणादि के मध्यत्व में अमृतकलश काल कर्म में विभक्त हुआ। नाना प्रकार के जन समुदाय के मध्य भावना प्रधान जन को ही अमृत प्राप्त होकर भौतिक शरीर को ही अमृत कलश बना देता है। चन्द्र अमृत जल,आर्द भूमि और हवा के मध्य रहता है। हवा की तीन गति मंद, सुगंध सलिल वायु का संचरण उक्त काल में होता है।

आत्मा, मन व शरीर आध्यात्मिक प्रवृत्ति में जब मकर संक्रांति के पावन पर्व में तारागण के मध्य जल या आर्द भूमि वायु का स्पर्श प्राप्त करता है तो इन्द्रियां प्रसन्न हो उठती हैं। इन्द्रियों के प्रसन्नता के साथ ही साथ मन अहलादित होता है तभी अमृत तत्व की प्राप्त काल कला प्रकृति के मध्य शरीर रूपी कलश में प्रवृष्ट होता है और परमानंद की अनुभूति होती है। स्नान में श्रेष्ठ, स्नान शाही स्नान कहा गया है जो मध्य रात्रि के बाद तारागणों के मध्य धर्माध्यक्षों के साथ जो अपने अन्य सहयोगियों वाहनादि दल के साथ स्नान करते हैं। दिगंबर स्नान तारागणों के मध्य ऊषाकाल तक तथा संन्यासी स्नान ऊषाकाल अरुणोदय बेला में तथा वैरागी स्नान सूर्योदय काल में सद्गृहस्थ संत सूर्योदय के बाद अमृत काल में अन्य सामान्य जन अहर्निश काल में स्नान करने का विधान शास्त्रों में वर्णित है। संक्त्रांति काल में वितृगणों के सहित, देवगण अन्य तीर्थ पति सभी तीर्थ राज प्रयाग में विचरण करते हैं उसीकाल में स्नान करना श्रेष्ठ कहा गया है।

धर्मस्थल पर दान स्नान ही श्रेष्ठ है। धर्मधारण की परंपरा है। धारण से जागृति पैदा होती है। पूर्वकाल में अमृत के अन्वेषणात्मक एक गोष्ठी हुयी जिसमें विद्वतगणों के मध्य निर्णीत विषय में पुराण के विद्वान ने बतलाया की अमृत समुद्र में होता है। यदि अमृत समुद्र में है तो समुद्र का जल क्षारीय क्यों है? साहित्यकार ने बतलाया कि अमृत नायिका के मुखमण्डल में रहता है तो ज्ञात हुआ कि नायिका के मुखमण्डल का पान करने वाले पति की मृत्यु क्यों होती है। न्याय के विद्वान ने बतलाया की अमृत चन्द्रमा में स्थित है तो खण्डन हुआ कि घटता-बढ़ता है। सांख्य शास्त्रकार ने बतलाया की सर्पराज के मुख मण्डल में अमृत रहता है तो खण्डन हुआ कि सर्प के मुख में विष रहता है। उससे विष और अमृत एक साथ नहीं हो सकते। वेद के विद्वान ने कहा कि स्वर्ग में अमृत है। विद्वानों ने खण्डन किया कि स्वर्ग वासियों का भी पुण्य समाप्त होने के बाद पतन होता है जिससे पतन अमृत का गुण नहीं है। अत: स्वर्ग में अमृत नहीं है। नाना प्रकार के खण्डन के बाद चिंतन में व्याकरण के विद्वान ने बतलाया की भगवान के भक्त के कंठ में अमृत रहता है। सभा में सभी जन ने स्वागत किया की भौतिक शरीर कलश है।

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