बुद्ध हमारे भीतर हैं
जो बुद्धत्व की याद करते हैं, उनके जीवन का एक ही प्रयोजन है कि कैसे जाग जाएं। वे हर स्थिति और हर उपाय को जागने का ही प्रयोजन बना लेते हैं। वे राह के पत्थरों को भी सीढि़यां बना लेते हैं। बुद्ध पूर्णिमा (6 मई) पर ओशो का चिंतन..
बुद्धत्व जागरण की आखिरी दशा है। तुम्हारी ही ज्योतिर्मय दशा है। तुम्हारा ही चिन्मय रूप है। जब तुम स्मरण करते हो- नमो बुद्धस्य.. तो तुम अपने ही चिन्मय रूप को पुकार रहे हो। तुम अपने ही भीतर अपनी ही आत्मा को आवाज दे रहे हो। तुम चिल्ला रहे हो कि प्रकट हो जाओ। नमो बुद्धस्य किसी बाहर के बुद्ध के लिए समर्पण नहीं है, यह अपने ही अंतर्मन में छिपे बुद्ध के लिए ही खोज है।
नमो बुद्धस्य या बुद्धानुस्मृति स्वयं के ही परम रूप की स्मृति है। वह सतह के द्वारा अपनी ही गहराई की पुकार है। वह परिधि के द्वारा केंद्र का स्मरण है। वह बाच् के द्वारा अंतर की जागृति की चेष्टा है।
जो हर वक्त याद करते हैं बुद्धत्व की, वे सदा अपने जीवन को एक ही दिशा में समर्पित करते चले जाते हैं। उनके जीवन का बस एक ही प्रयोजन है कि कैसे जाग जाएं? वे हर स्थिति और हर उपाय को अपने जागने का ही प्रयोजन बना लेते हैं। वे हर अवसर को जागने के लिए ही काम में लाते हैं। ऐसे लोग राह के पत्थरों को भी सीढि़यां बना लेते हैं। वे एक ही लक्ष्य रखते हैं कि उन्हें उस मंदिर तक पहुंचना है, जो उन्हींके भीतर अवस्थित है। अपनी ही सीढि़यां चढ़नी हैं, अपनी ही देह और मन को सीढ़ी बनाना है। जागरूक होकर निरंतर धीरे-धीरे स्वयं के भीतर सोए हुए बुद्ध को जगाना है।
तीन बातों पर बुद्ध ने सदा जोर दिया- बुद्ध, धर्म और संघ। बुद्ध का अर्थ है, जिनमें धर्म अपने परिपूर्ण रूप में प्रकट हुआ है। काश, तुम ऐसे व्यक्ति को पा लो, जिसके जीवन में तुम्हें लगे कि धर्म साकार हुआ है, तो तुम धन्यभागी हो। जिसके जीवन से तुम्हें ऐसा लगे कि धर्म केवल सिद्धांत नहीं है, जीती-जागती स्थिति है। ऐसी स्थिति में बुद्ध कहते हैं कि उस व्यक्ति के स्मरण से लाभ होता है, जो जाग गया है। क्योंकि जब तक तुम जागे हुए व्यक्ति के पास नहीं जाओगे, तब तक तुम कितना भी सोचो, जागरण का आधार नहींमिलेगा। तब तक तुम निराधार हो। तुम्हारे भीतर संदेह बना ही रहेगा।
बुद्ध के पास जाने का अर्थ इतना सा है- यह देखना कि मेरे जैसे ही मांस-मज्जा और हड्डियों से बने हुए आदमी में ऐसा कुछ हुआ है, जो मुझसे अलग है। जहां तक चमड़ी-मांस-मज्जा का संबंध है, ठीक मेरे जैसा है। बीमारी आएगी तो इसे भी लगेगी। लेकिन फिर भी इसके भीतर कुछ घटा है, जो मेरे भीतर नहीं घटा। अगर इस आदमी के भीतर यह दीया जल सकता है, तो मेरे भीतर क्यों नहीं? तब एक अदम्य प्यास उठती है, तो तुम्हें झकझोर देती है। सत्संग का यही अर्थ है।
बुद्ध मिल जाएं, तो समझो सद्गुरु मिल गया। बुद्ध प्रतीक हैं धर्म के। जब हम किसी दीये को नमस्कार करते हैं, तो उसमें जलती ज्योति के कारण करते हैं। दीये के बिना ज्योति नहींहोती, होती भी हो तो हमें दिखाई नहींदेती। इसलिए हम दीये को धन्यवाद देते हैं कि उसने ज्योति को प्रकट करने में सहायता दी, लेकिन अंतत: नमस्कार तो ज्योति के लिए है, दीये के लिए नहीं। इसी प्रकार हम बुद्ध को उनके जागरण के लिए पहला नमस्कार करते हैं।
दूसरा नमस्कार धर्म के लिए। धर्म का अर्थ है, जीवन का शाश्वत नियम, जिससे सारा जीवन चलता है। जिसके आधार से चांद-तारे बंधे हैं। जिसके आधार से ऋतुएं घूमती हैं। जिसके आधार से जीवन चलता है। जिसके आधार से हम सोचते-विचारते हैं। ध्यान करते हैं। समाधि तक पहुंचते हैं। जो विस्तार है उसका, उस आधारभूत नियम का नाम है धर्म। जो स्थान हिंदू-विचार में परमात्मा का है, वही स्थान बुद्ध-विचार में धर्म का है। जो सबको धारण किए हुए है, वही धर्म है। उसके प्रति निरंतर स्मृति बनी रहे, तो सोते-जागते भी व्यक्ति प्रकाश से भरा रहता है।
तीसरा नमस्कार संघ के लिए है, ताकि संघ में स्मृति लीन रहे। पहला बुद्ध, जिनमें पूरा धर्म प्रकट हुआ है। बीच में धर्म, जो अप्रकट है। जिसका हमें अनुमान होता है बुद्ध को देखकर, लेकिन हमारी निजी प्रतीति नहींहै। और फिर संघ। उसकी भी स्मृति रखना, क्योंकि अकेले शायद तुम न पहुंच पाओ। तुम अगर उनके साथ जुड़ जाओ, जो पहुंचने की यात्रा पर चले हैं, तो पहुंचना आसान हो जाएगा।
बुद्ध का अर्थ है ऐसा व्यक्ति, जो इस संसार में बंद था। ठीक तुम जैसा, जो अब बाहर हो गया है। उससे साथ जोड़ लो। संघ से संबंध है, उन लोगों से साथ जोड़ लो, जो अभी जेल (संसार) में तुम्हारे साथ बंद हैं। उनके साथ इकट्ठे हो जाओ। तुम जैसे-जैसे संगठित होते चले जाते हो, तुम्हारी अपनी कमजोरियां, तुम्हारे संगी-साथियों की शक्ति के साथ संयुक्त हो जाती हैं। तुम ज्यादा बलवान बन जाते हो। तब एक बड़ी लहर पैदा हो जाती है, जिस पर सवार होना आसान है।
बुद्ध का स्मरण, संघ का स्मरण और दोनों के पार जो धर्म है, उसका स्मरण। जिन्होंने पा लिया उसका स्मरण, जो पाने चल पड़े हैं, उनका स्मरण और जिसे पाने चले हैं, उसका स्मरण-ये तीन महत्वपूर्ण स्मृतियां हैं। इनको बुद्ध ने त्रिरत्न कहा है, त्रिशरण कहा है। ये बुद्ध धर्म के तीन रत्न हैं- बुद्धं शरणं गच्छामि.. संघं शरणं गच्छामि.. धम्मं शरणं गच्छामि..।
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