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    महिलाओं के काम को मिलनी चाहिए तवज्जो

    आजादी के 65 वर्ष बाद भी भारत एक ऐसा समाज विकसित करने में नाकामयाब रहा है, जहां सभी के लिए समान अधिकार हों। महिलाओं के खिलाफ हिंसा चरम पर है और इसकी वजह लिंग के आधार पर जन्म से ही शुरू हुआ शिक्षा, स्वास्थ्य और स्वतंत्रता में भेदभाव है। 21वीं सदी में भी भारतीय महिला, जिसे

    By Edited By: Updated: Sat, 08 Mar 2014 12:57 PM (IST)
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    आजादी के 65 वर्ष बाद भी भारत एक ऐसा समाज विकसित करने में नाकामयाब रहा है, जहां सभी के लिए समान अधिकार हों। महिलाओं के खिलाफ हिंसा चरम पर है और इसकी वजह लिंग के आधार पर जन्म से ही शुरू हुआ शिक्षा, स्वास्थ्य और स्वतंत्रता में भेदभाव है। 21वीं सदी में भी भारतीय महिला, जिसे कहने को तो कानूनी सुरक्षा प्राप्त है, मीडिया भी उसका ख्याल रखता है और उसके हितों की रक्षा के लिए सामाजिक कार्यकर्ता भी सक्रिय रहते हैं, लेकिन हकीकत यही है कि आज भी वह दूसरे दर्जे की नागरिक बनकर जीवनयापन कर रही है।

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    अक्सर महिलाओं को पुरुषों के समान अवसर नहीं दिए जाते, इसलिए वे भी अपनी प्रतिभा से वाकिफ नहीं होती हैं। बहुत से घरों में आज भी लड़कियों और महिलाओं को किसी पुरुष को साथ लिए बिना घर की चौखट से बाहर कदम रखने की इजाजत नहीं होती। बहुत से घरों में तो लड़की की पढ़ाई बीच में छुड़वाकर उसके हाथ पीले कर दिए जाते हैं।

    हाल के समय में महिलाओं के खिलाफ बढ़े हिंसा के मामलों के साथ ही भारतीय सिनेमा में दिखाई जा रही महिला की छवि पर भी जबरदस्त बहस शुरू हो गई है। मैं हमेशा से कहती आ रही हूं कि मनोरंजन की दुनिया में भी महिलाओं के सामने कई चुनौतियां हैं, जिसमें बॉलीवुड की वरिष्ठ अभिनेत्रियों के लिहाज से पटकथा की कमी भी एक है। अन्य उद्योगों में महिलाएं-पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं, लेकिन बॉलीवुड में आज भी पुरुषों का वर्चस्व हैं, जहां महज कुछ चुनिंदा युवा अभिनेत्रियों के अवसर हैं। जब मैंने अपने फिल्मी कॅरियर की शुरुआत की थी तब न सिर्फ महिलाओं को पर्दे पर दिखाना मुश्किल होता था, बल्कि सिनेमा को ही एक बहुत बदनाम पेशा माना जाता था। फिल्म आपूर संसार में अभिनय करने के बाद मुझे स्कूल छोड़ने के लिए कह दिया गया था, क्योंकि स्कूल की प्रिंसिपल को लगा कि अन्य लड़कियों पर मेरा बुरा प्रभाव पड़ेगा और मेरी वजह से स्कूल की बदनामी होगी। आज वह दौर बीत गया है।

    भारत में महिलाओं की भूमिका बहुत जटिल है। ज्यादातर महिलाओं से यही उम्मीद की जाती है कि वे शादी करें और उसके बाद बच्चे संभाले और इसी बात के आधार पर समाज में उनकी जगह तय होती है। घरों में अक्सर महिलाओं की चलती है और कई बार वे काफी सख्ती से अपना घर चलाती हैं, लेकिन अगर बच्चों या पति के साथ कोई समस्या हो जाए तो सारी गलती महिला की ही मानी जाती है और यह मान लिया जाता है कि उसने एक अच्छी पत्नी व मां होने की अपनी भूमिका को अच्छी तरह नहीं निभाया।

    मैं खुद को असाधारण रूप से बहुत सौभाग्यशाली मानती हूं कि मुझे मंसूर अली खान पटौदी (टाइगर) जैसे जीवनसाथी मिले, जिन्होंने हमेशा मेरी पसंद का सम्मान किया और मेरे फैसलों का समर्थन किया, चाहे वह फिल्मी दुनिया छोड़ने का हो या फिर से फिल्मों में आने का। टाइगर के समर्थन ने मुझे बहुत मजबूत किया। मेरे काम को लेकर मुझे प्रोत्साहित करना, बच्चों को पालने में पूरा सहयोग करना और हमेशा तारीफ करने की उनकी आदत ने हमारे रिश्ते को बहुत यादगार साझेदारी बनाया है, जिसमें जाहिर तौर पर मेरा बहुत विकास हुआ।

    मुझे अधिकतर हिंदी टीवी सीरियलों को देखकर चिंता होती है, क्योंकि उनमें भारतीय सास को बहुत खतरनाक और भयानक दिखाया जाता है। टीवी पर बहुत से सीरियल सास-बहू के ही इर्द-गिर्द घूम रहे हैं। यह सिर्फ महिलाओं में ही नहीं, बल्कि पीढि़यों के बीच टकराव को दर्शाता है। दूरदर्शन पर आने वाला शो मैं कुछ भी कर सकती हूं, एक ज्ञानवर्धक टीवी सीरियल है, जो इस पुरातन सोच के दायरे को तोड़ता है और आज देश में महिलाओं के खिलाफ हो रहे भेदभाव की जड़ तक जाता है। इस भेदभाव की शुरुआत जन्म से (या उससे पहले) ही हो जाती है।

    कुछ गलत अवधारणाओं को तुरंत सुधारने की जरूरत है मसलन महिलाओं का काम सिर्फ देखभाल करना होता है, वे सिर्फ सहायक भूमिकाओं में होती हैं, हमेशा पुरुषों पर निर्भर होती हैं, जो ज्यादा ताकतवर होते हैं और सारे फैसले करते हैं। यह बहुत जरूरी है कि महिलाओं को अपनी मर्जी से चलने की आजादी मिले कि उन्हें बच्चा कब चाहिए। आखिरकार मातृत्व उनके व्यक्तित्व का महज एक ही पहलू है।

    सबसे अहम् बात परिवार नियोजन सिर्फ महिला की जिम्मेदारी नहीं है। यह मामला पूरे परिवार से जुड़ा है। महिलाओं का जीवन बचाने और जीवन स्तर सुधारने में परिवार नियोजन की अहम् भूमिका है। माता का स्वास्थ्य सुधारने और जन्म के समय माता या नवजात शिशु की मृत्यु रोकने का यह सबसे प्रभावी तरीका है। महिलाओं को इस पहल का केंद्र बनाकर, उनकी मर्जी का समर्थन कर और मांग बढ़ाकर हम यह सुनिश्चित करने में मदद कर सकते हैं कि बच्चे कब पैदा करने हैं यह फैसला करने का अधिकार महिलाओं को मिले।

    जहां आज शिक्षा, रोजगार के अवसर और सोशल नेटवर्किंग साइटों ने कुछ महिलाओं को अपनी भावनाएं व्यक्त करने की आजादी दी है, वहीं आज भी बहुत सी लड़कियां और महिलाएं परिवार, इज्जत, परंपरा, धर्म, संस्कृति और समुदाय के नाम पर अन्याय का शिकार हो रही हैं। यह बहुत ही शर्मनाक बात है कि आज भी कई महिलाएं और लड़कियां अपने बुनियादी अधिकारों और आत्म सम्मान के लिए संघर्ष कर रही हैं। मेरा मानना है कि पारंपरिक तौर पर पुरुषों के वर्चस्व वाले कार्यक्षेत्र में जैसे-जैसे महिलाओं के कदम बढ़ रहे हैं, वैसे ही घर हो या बाहर उनके काम को तवज्जो मिलनी चाहिए। नौकरीशुदा मां जैसे शब्दों की ही तरह नौकरीशुदा पिता जैसे शब्दों का भी प्रयोग होना चाहिए और इसके लिए लोगों को संवेदनशील बनाने की जरूरत है, स्वयं महिलाओं को भी कि उनकी जरूरतें क्या हैं और उनसे क्या अपेक्षाएं रखी जातीं हैं।