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अमन के दीप से रोशन हो रही इंसानियत

आईएसआईएस की चपेट में आकर तबाह हो रहे हैं लोग। ऐसी स्याह-काली रातों में उम्मीद की किरण बनकर, दर्द से उबारने वाली मसीहा बनकर उभरी हैं मावाहिब अल शैबानी।

By Suchi SinhaEdited By: Published: Sat, 03 Dec 2016 10:48 AM (IST)Updated: Sat, 03 Dec 2016 12:01 PM (IST)
अमन के दीप से रोशन हो रही इंसानियत

दुनिया दहशतगर्दी से जूझ रही है। मोसुल, तिकरित, बगदाद। ये नाम खबरों की सुर्खियां बनती हैं। इराक के इन्हीं इलाकों में मेसोपोटामिया की सभ्यता फली-फूली। अरब की हजारों रातों की कहानियां निकलीं। सिंदबाद सफर पर निकला, लेकिन आज इन जगहों पर जिंदगी सुबकती रहती है। आईएसआईएस की चपेट में आकर तबाह हो रहे हैं लोग। ऐसी स्याह-काली रातों में उम्मीद की किरण बनकर, दर्द से उबारने वाली मसीहा
बनकर उभरी हैं मावाहिब अल शैबानी...

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जिंदगी की घुमावदार राहें
मैं संयुक्त अरब अमीरात में रहती हूं। मां यही से हैं और पिता स्विटजरलैंड से। यूएई से स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद मैं अमेरिका चली गई। यूनिवर्सिटी ऑफ पेनसिल्वेनिया में पढ़ाई की। मैं फाइनेंस और बैंकिंग में ग्रेजुएट हूं। मां को बैंकिंग में खास दिलचस्पी रही है। उन्होंने यूएई में महिलाओं के लिए बैंकिंग सेवा शुरू की थी। शायद इसलिए मैंने भी बैंकिंग की तरफ रुझान महसूस किया। पढ़ाई पूरी करने के बाद न्यूयार्क स्टॉक एक्सचेंज में बतौर ब्रोकर के रूप में काम किया, पर नहीं जानती थी कि जिंदगी की राहें इतनी घुमावदार होती हैं कि आपको ऐसी जगह लाकर पटक सकती हैं जिसकी कल्पना मुमकिन नहीं। जब बचपन शुरू ही हुआ था तब यमन, जो मेरे पूर्वजों का देश है, समाजवादी क्रांति की चपेट में आकर तबाह हो गया। हम मूलत: व्यापारी थे। इस आग में
हमारा पूरा व्यवसाय झुलस चुका था। यमन से हम भागकर यूनाईटेड अरब अमीरात आ गए और जिंदगी फिर से शुरू हुई। कहां मालूम था कि एक ऐसा मोड़ आएगा जब आईएसआईएस जैसे आतंकी संगठनों के कारण तबाह होने वाली इंसानियत को राहत देना ही मेरा मकसद बन जाएगा।

अध्यात्म ने भरा खालीपन
मैंने पढ़ाई बहुत की है। दुनिया के श्रेष्ठ संस्थानों में काम करने का अनुभव है मुझे। जॉब के दौरान भी कई ऐसे
अवसर मिले जब अत्याधुनिक ज्ञान और तकनीक का साथ मिला, लेकिन इतना सब कुछ हासिल करने के बाद भी एक खालीपन था। जब भी दुनिया में दहशत के कारण दबेसह मे इंसानों को देखती तो बेचैन हो जाती थी। एक दिन यूं ही मेरा एक दोस्त मिला और मुझे आध्यात्मिक गुरु श्रीश्री रविशंकर के आर्ट ऑफ लिविंग के बारे में बताया। मैं जॉब से मिले खालीपन से त्रस्त थी। इसलिए तुरंत इस ओर खिंचती चली गई। कुछ ही दिनों में मैंने महसूस किया कि इसी की तलाश थी मुझे। मैं इंसान होने के वास्तविक अर्थ को ढूंढ़ रही थी और वह अर्थ मुझे सहसा ही मिल गया था। 15 साल तक बैंकिंग के क्षेत्र में गुजारने के बाद अब लगता
है कुछ सार्थक करने को मिला है।


जब देखा सिसकती रूहों को
जब पहली बार इराक गई तो महसूस हुआ कि लोग बुरी तरह डरे हुए हैं। यह वह दौर था जब अमेरिका ने इराकी
राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को परास्त कर दिया था। लोग कह रहे थे, ‘ऐसे जीने में क्या रखा है, अच्छा होता जीवन न मिला होता। यह कहते हुए उनके चेहरे पर हंसी तो थी, पर उसमें दर्द सहज महसूस किया जा सकता था। लोग जीवन से प्यार नहीं करते थे, वे पलायन कर रहे थे। उनके जीवन में खोखलापन था। जिंदगी जीने का जैसे कोई मकसद ही न रहा हो। मैं यह सब देख-सुनकर बहुत निराश हुई। फिर लगा कि चलो मुझे अवसर मिला ताकि मैं इन चेहरों की हंसी लौटा सकूं। मन में सुकून ला पाऊं। फिर से उन्हें जिंदगी से प्यार करना सिखा सकूं।

जिंदगी को ढोते लोग

इराक में आतंकी संगठन आईएसआईएस की दहशत प्रभावित इलाकों के हर जर्रे से बयां होती है। लोगों का चेहरा वो आईना है, जिन पर दहशत की कहानियां पढ़ी जा सकती हैं। आतंक का यह अमानवीय स्वरूप देखकर दिल दहल जाना स्वाभाविक है। छोटी-छोटी बच्चियों के साथ क्रूरता का खेल खुलेआम चलता है। एक दिन में कई-कई बार बलात्कार और हिंसक वारदातें होती हैं। भरी दोपहरी में उन्हें उठा लिया जाता है। मैंने अपनी आंखों से देखा है उस दर्द को भी, जब महिलाओं को जबरन मानव बम बनने को कहा जाता है। छोटे-छोटे बच्चों को हत्या का प्रशिक्षण दिया जाता है। महज छह-सात साल या इससे भी कम उम्र के बच्चों को इस तरह प्रशिक्षित किया जाता है कि वे एक साथ कई जानें ले पाने में सक्षम हो जाएं। मुझे समझ नहीं आता है कि कोई
ऐसी जिंदगी को ऐसे हालात में कैसे ढो रहा है।


मौत से टकरा जाऊं
आमतौर पर ऐसा लग सकता है कि आईएसआईएस से टकराना मौत के मुंह में जाना है, पर मुझे कभी ऐसा नहीं
लगा। आतंकवादी भी आदमी हैं। बस उस आदमी की मानसिक दशा इंसानियत से विमुख हो चुकी है, क्योंकि उसे
उसी अनुरूप प्रशिक्षित किया गया है कि वह इसी राह पर चलकर अपना मकसद पूरा करे। इसलिए कहीं न कहीं एक उम्मीद की किरण जरूर है कि ऐसे कठोर रूप से प्रशिक्षित आदमी को इंसानियत की तरफ मोड़ा जा सके।
आईएसआईएस के प्रभाव वाले इलाकों में जाना दुष्कर तो है पर दर्द भरे मन को शांति और सुकून देना है तो ऐसे कठिन रास्ते चुनने ही पड़ते हैं। हजारों की तादाद में लड़कियों को निकाला जा चुका है। अब भी जाने कितनी हैं जो हर रोज मर रही हैं। उन्हें वहां से निकालने के लिए मौत से टकराना जरूरी है।


सुरक्षा पहली चुनौती
आतंक से निपटने की पहली चुनौती सुरक्षा है और वंचितों को बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराना है। मैं इस मिशन पर लगी हूं और मेरे जैसे कई लोग दिन-रात जुटे हुए हैं। तंग पहाड़ियों के बीच से हम लोगों ने तकरीबन सात हजार लड़कियों को आईएसआईएस के चंगुल से आजाद कराया। उनसे क्रूरता की कहानियां सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि किस तरह उन्हें भूखा रखकर रौंदा जाता है और औने-पौने भाव में बेच दिया जाता है। ये लड़कियां नौ से 35 साल की हैं। उनकी सुरक्षा और पुनर्वास बड़ी चुनौती है। इराकी सरकार की मदद से इनसे निपटना संभव हो रहा है। हम उन्हें जीवन की बुनियादी सुविधाएं देते हैं और सबसे बड़ी बात फिर से मिले जीवन को संवारने की व्यवस्था करते हैं। यह काम मुश्किल है, क्योंकि वे मानसिक रूप से क्षत-विक्षत हैं और एक गंभीर
सदमे से गुजर रही हैं।


सीरिया की दास्तां
दुनिया की पुरानी सभ्यता है यह। यहां के लोग उच्च स्तर के शिक्षित और बौद्धिक रूप से सजग और परिश्रमी रहे हैं। वही सीरिया आज सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। अचानक अंधेरा छा गया है। अपने मिशन के दौरान जब मैं वहां गई तो मेरा रोम-रोम सिहर गया। जब मैंने देखा कि आज उसी सभ्यता के युवाओं की आंखें बेनूर हैं, बेआस हैं। दुनिया में ऐसी कोई जगह नहीं जिसने मुझे इतनी पीड़ा दी है। आखिर कहां जाएंगे लोग, कैसे छोड़ सकते हैं अपने घर-देश को। युवाओं को दोबारा पटरी पर लाना निश्चय ही कठिन चुनौती है। क्या फिर से सीरिया अपने गौरवशाली युग को लौटा सकेगा? पूरी दुनिया के साथ मैं भी यही सोचती हूं।


अध्यात्म से आतंक का खात्मा
क्या दुनिया यूं ही तबाह होती रहेगी और हम आतंकवाद से बर्बाद होती दुनिया को देखते रहेंगे? नहीं। युद्घ कभी समाधान नहीं हो सकता, यह सोचना होगा। दुनिया के विकसित देशों को हथियार का व्यापार बंद करना होगा। संपत्ति का समान बंटवारा और यह यकीन कि हम सब जुड़े हुए हैं। कोई दर्द झेलता है तो निश्चित तौर पर हम सब इस पीड़ा से बच नहीं पाएंगे। आतंकवाद का कोई देश-मजहब नहीं, इंसानियत को एकजुट होकर इसका मुकाबला करना होगा और इसमें अध्यात्म का बड़ा योगदान हो सकता है।

सीना झा


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