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खुल के जीने का हक मिले: तनुजा चंद्रा

अपनी फिल्मों में स्त्री को सशक्त रूप में पेश करती रही हैं निर्देशक तनुजा चंद्रा। वह मानती हैं कि हर दिन अपनी क्षमताओं के बेहतर इस्तेमाल से ही साकार होगा सपना स्त्री सशक्तिकरण का...

By Babita kashyapEdited By: Published: Sat, 05 Mar 2016 12:58 PM (IST)Updated: Sat, 05 Mar 2016 01:08 PM (IST)

अपनी फिल्मों में स्त्री को सशक्त रूप में पेश करती रही हैं निर्देशक तनुजा चंद्रा। वह मानती हैं कि हर दिन अपनी क्षमताओं के बेहतर इस्तेमाल से ही साकार होगा सपना स्त्री सशक्तिकरण का...

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आपकी नजर में स्त्री सशक्तिकरण के मायने क्या हैं? इस संदर्भ में मौजूदा तस्वीर में बदलाव की दिशा में पहला कदम क्या होना चाहिए?

इसका अर्थ सही मायने में महिलाओं का व्यक्तिगत पसंद के साथ, अपनी गरिमा के साथ जीवन जीने में सक्षम होना है। कोई भी सामाजिक प्रक्रिया या नियमों से अलग नहीं है। हम आसपास की जिन चीजों को देखकर बढ़ते हैं उसी के अनुसार अपने वैल्यू सिस्टम बनाते हैं। मुझे लगता है कि कई सदियां बीत जाने के बावजूद महिलाएं जिंदगी का अधिकांश हिस्सा मनमर्जी और पसंद के मुताबिक नहीं जी पाती हैं। बौद्धिक, भावनात्मक स्तर से लेकर शारीरिक स्तर पर भी वे पुरुष से किसी मामले में कमतर नहीं हैं। बावजूद इसके दुनिया की नजरों में महिलाएं अभी भी पुरुषों के बराबर दर्जा पाने से काफी दूर हैं। लिहाजा इस मसले पर लगातार गौर करने और इसमें सुधार करने की आवश्यकता है। बदलाव तभी संभव है, जब लड़कियों को शिक्षित बनाया जाए। उनकी परवरिश में भी भेदभाव नहीं होना चाहिए।

क्या आपको लगता है कि भारतीय फिल्मों में स्त्री की जो तस्वीर पेश की जा रही है, वह सही है? इस संदर्भ में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए आप अपनी ओर से क्या प्रयास सुनिश्चित करना चाहेंगी?

कहानियां और समाज एक-दूसरे से जुड़े हैं। फिल्में हों, किताबें हों या टीवी इनमें बयां होने वाली कहानी जिंदगी से प्रेरित होती है। यही बातें कहानीकारों को प्रभावित करती हैं। हालांकि मेरा दृढ़ता से मानना है कि फिल्मों में महिलाओं के उत्पीडऩ या उनके खिलाफ किसी प्रकार की हिंसा को ग्लोरीफाई नहीं करना चाहिए। यह गैर

जिम्मेदाराना कार्य है। सिल्वर स्क्रीन पर महिलाओं की छवि बदलने के लिए हमें जीवन जीने के

तौर-तरीकों में बदलाव लाना होगा। समाज को महिलाओं के प्रति बनी धारणा से उबरना होगा।

सदियों से चली आ रही सामंतवादी सोच से उबरना होगा। हम लोकतांत्रिक देश में रहते हैं। यहां पर सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है। लिहाजा मैं फिल्मों में सेंसरशिप के भी खिलाफ हूं। मुझे लगता है कि फिल्ममेकरों को यह जिम्मेदारी अपने स्तर पर खुद समझनी चाहिए।

क्या कभी महसूस हुआ कि स्त्री होने के कारण अपनी क्षमताओं पर लोगों को यकीन दिलाने में आपको अधिक मेहनत करनी पड़ी?

कभी नहीं। मैं अपने समकक्ष पुरुषों के बराबर काम करती हूं। हालांकि मैं यह जरूर कहना चाहूंगी कि महिलाएं कुशल होने के साथ अच्छी लीडर भी होती हैं। फिल्म इंडस्ट्री में चुनिंदा महिला तकनीशियन भी हैं। जिस दिन इंडस्ट्री में महिला निर्देशकों की संख्या उनके पुरुष समकक्षों की आधी भी होगी

तब हम उनकी योग्यता, टैलेंट, क्षमता और मेहनत के बारे में किसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे। वैसे अभी

अनगिनत महिला प्रधान कहानियां हैं जिन पर काम करने की जरूरत है। रही बात दूसरों को अपनी

योग्यता पर यकीन दिलाने की तो महिला प्रधान फिल्में बनाने को लेकर मुझे थोड़ा प्रतिरोध का सामना करना

पड़ा है। निर्माता इस प्रकार की कहानियों के ज्यादा शौकीन नहीं होते। उनका मानना होता है कि ये कॉमर्शियली

सक्सेसफुल नहीं होतीं। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में इस सोच में बदलाव आ रहा है और महिला प्रधान कहानियों को पसंद किया जा रहा है।

शिक्षा ने हर लडक़ी में समझ पैदा की है। सुरक्षा को लेकर वे सजग भी हैं। फिर भी लड़कियों को लेकर पैरेंट्स में

इनसिक्योरिटी क्यों बनी रहती है?

पैरेंट्स वास्तविकता और आदर्शवाद के बीच अंतर से वाकिफ होते हैं। फेसबुक पर आदर्श दुनिया की बात होती है। वहां पर किसी छवि, वीडियो को शेयर करना या किसी मुद्दे पर अपनी राय देना और नारे लगाने में फर्क है। हर दिन होने वाली घटनाओं को देखते हुए उनका इनसिक्योर होना लाजमी है।

हमारा लक्ष्य बेहतर इंसान बनना, बेहतर जिंदगी और सभी के लिए समानता की लड़ाई होना चाहिए। जब यह सोच सभी की होगी तभी हम आदर्श समाज स्थापित कर पाएंगे।

नारी सशक्तिकरण की अवधारणा क्या उच्च संपन्न वर्ग और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर व शिक्षित महिलाओं तक ही सीमित है?

नारी सशक्तिकरण की अवधारणा सिर्फ इन्हीं चीजों पर निर्भर नहीं है। इसके अलावा भी बहुत सारी चीजें हैं। शिक्षा अत्यंत जरूरी है और वित्तीय स्वतंत्रता भी। नारी सशक्तिकरण खुद ब खुद नहीं होगा। इसके लिए महिलाओं को दिमाग में बनाई गई सीमाओं से मुक्त होने की आवश्यकता है। उन्हें अवसर के इंतजार में बैठे नहीं रहना चाहिए, बल्कि उन मौकों को हासिल करने का जी-तोड़ प्रयास करना चाहिए। स्वस्थ और बेहतर जीवन जीने के लिए अपनी क्षमताओं और योग्यताओं का भरपूर इस्तेमाल करना चाहिए। साथ ही यह याद रखना चाहिए कि यह आसान काम नहीं है। स्त्री हो या पुरुष दोनों को संघर्ष करना पड़ता है।

जिंदगी में आगे क्या करना है? आपके ख्वाब क्या हैं? उनकी मंजिल कैसे मिलेगी? इस दिशा में कदम बढ़ाने से पहले पहला सवाल खुद से करना चाहिए कि आपकी खुद से क्या अपेक्षाएं हैं? इस पहले कदम से आपकी सार्थक शुरुआत होगी। जिंदगी कभी किसी के लिए आसान नहीं होती। यह चुटकी में होने वाली चीज नहीं है। यह सतत प्रक्रिया है। इसमें वक्त लगेगा। हम सभी को जिंदगी में कई बार मुश्किल हालातों का सामना करना पड़ता है, ऐसे में उनसे संघर्ष करने और आगे बढऩे की प्रेरणा कहां से पाती हैं? कोई प्रेरक पंक्तियां शेयर करना चाहेंगी?

मैं विफलता से कभी हताश नहीं होती। काम को बेहतर और उम्दा बनाने के लिए प्रयासरत रहती हूं। अपनी सोच सकारात्मक रखती हूं। मेरा मानना है कि हमेशा दूसरों से एक कदम आगे चलने की कोशिश करनी चाहिए। अच्छा-बुरा समय तो आता-जाता रहता है। असफलता भी स्थायी नहीं होती।

आपकी नजर में एक औरत की सबसे बड़ी सफलता क्या है?

हर लड़की अपनी जिंदगी को जीने के सपने संजोती है। जिंदगी को अपने सपनों के मुताबिक जी पाना ही एक औरत की सबसे बड़ी कामयाबी है।


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