शहरीकरण की मार से दम तोड़ रहे ग्रामीण खेल
सिकंदरपुर (बलिया) : पुरातन भारतीय खेलों का लुप्त होना पारंपरिक सामाजिक ढांचे को कमजोर कर रहा है। शिक्षा से जुड़े लोग व बुद्धिजीवी इसे अच्छा संकेत नहीं मानते। इस बाबत जितेंद्र उर्फ जीतन पांडेय ने कहा कि शिक्षा जहां बौद्धिक विकास में सहायक है वहीं खेल अच्छे स्वास्थ्य का प्रतीक है। अंग्रेजी की कहावत भी है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का विकास होता है। बावजूद इसके अनेक कारणों से प्राचीन भारतीय खेलों का लुप्त हो जाना चिंता का कारण है। नियाज अहमद का कहना है कि चूंकि भारत गांवों का देश है अस्तु यहां ग्रामीणों के मनोरंजन के साधन भी गांव की मिट्टी से ही जुड़े हुए थे। कबड्डी, कुश्ती, गुल्ली डंडा, ओल्हापाती ऐसे खेल थे जो मनोरंजन के आवरण में मस्तिष्क को कुशाग्र और निगाहों को चपल बनाते थे। इसमें श्वांस क्रिया को रोकने का अभ्यास होता था। यह पूरी प्रक्रिया शरीर को पुष्ट बनाती थी। गांवों के शहरीकरण ने इन खेलों को लुप्त कर क्रिकेट के आधिपत्य को जमा दिया है। अब हालत यह है कि युवा वर्ग क्रिकेट के प्रति दीवाना-सा हो गया है। अरविंद कुमार राय ने कहा कि ग्रामीण खेलों के लुप्त होने का अन्य कारण उच्च शिक्षा ग्रहण करने की ललक और घोर गरीबी भी है। पढ़ाई का बोझ बढ़ जाने के कारण बच्चों को खेलने का समय कम मिल पा रहा है। स्कूल से वापस घर आते ही बच्चे होम वर्क करने तथा ट्यूशन पढ़ने में लग जाते है मोबाइल पर ही गेम खेलने लगते हैं। सुभाष चंद्र दूबे का कहना है कि यह तथ्य है कि खेल बच्चों में सामाजिकता और मेल मिलाप बढ़ाने के उत्तम साधन हैं। इसलिए मां बाप को अपने बच्चों को खेलों में भाग लेने के लिए भी प्रेरित करना चाहिए। शासन को भी चाहिए पुराने खेलों को पुनर्जीवित तथा युवाओं का उन खेलों के प्रति प्रेरित करने के लिए विशेष व्यवस्था करे।
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