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विभाजन बाद के लाहौर में इंसानी रिश्तों की दास्तां

By Edited By: Published: Sun, 26 Jan 2014 08:52 PM (IST)Updated: Sun, 26 Jan 2014 08:53 PM (IST)
विभाजन बाद के लाहौर में 
इंसानी रिश्तों की दास्तां

जागरण संवाददाता, नई दिल्ली : 11वें नटसम्राट नाट्य उत्सव में भारतीय सांस्कृतिक एवं सामाजिक विकास संगठन कुरुक्षेत्र ने असगर वजाहत के लिखे नाटक 'जिस लाहौर नहीं वेख्या ओ जम्या ही नहीं' का मंचन एलटीजी सभागार में किया। नाटक का निर्देशनचंद्र शर्मा ने किया। कहानी विभाजन की त्रासदी और उस समय के हालात पर बड़ी गहराई से रौशनी डालती है। शायर नसीम काजमी के अल्फाज प्रगतिशील विचारधारा के द्योतक हैं। नाटक के कई दृश्य और संवाद दर्शकों के मन को छू लेते हैं।

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इस नाटक की कहानी भारत-पाक विभाजन के बाद की परिस्थितियों पर आधारित है। इसमें लखनऊ से लाहौर गए एक मुस्लिम परिवार को वहां का कस्टोडियन आफिसर लाहौर के रतनलाल जौहरी की हवेली दे देता है लेकिन उस हवेली में जौहरी की बूढ़ी मां रहती है। पहले तो मुस्लिम परिवार उस बूढ़ी औरत को निकालने की कोशिश करता है लेकिन धीरे-धीरे बूढ़ी महिला सबका दिल जीत लेती है। लेकिन लाहौर में एक कट्टरपंथी मुसलमान पहलवान को पूरे लाहौर में एक हिंदू महिला का होना अखरता है और वह बार-बार उस बूढ़ी औरत को शहर से बाहर निकालने के लिए मुस्लिम परिवार पर दबाव बनाता है। लेकिन मुस्लिम परिवार अब उसे अपने घर का सदस्य मानता और उसके साथ दीपावली मनाता है। कट्टरपंथी लोग इस विषय पर मौलवी की राय लेते हैं लेकिन मौलवी को यह अनुचित नहीं लगता। वृद्धा के मरने पर उसके अंतिम संस्कार को लेकर संशय होता है कट्टरपंथी समुदाय उसे दफनाने की बात करता है वहीं मुस्लिम परिवार और नाटक का एक पात्र शायर नसीम काजमी उसे जलाने की बात करते हैं। मौलवी भी जलाने की बात करता है। बूढ़ी औरत के शव को जला दिया जाता है लेकिन कट्टरपंथी मुसलमान मौलवी की हत्या कर देते हैं।

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