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इन कारणों से पश्चिम बंगाल में हुई 'दीदी' की वापसी

West Bengal Assembly Election 2016: पश्चिम बंगाल में एक बार फिर ममता बनर्जी ने लेफ्ट और कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया है। ममता बनर्जी के दबदबे के सामने लेफ्ट-कांग्रेस गठबंधन की एक भी नहीं चली।

By Manish NegiEdited By: Published: Thu, 19 May 2016 11:55 AM (IST)Updated: Thu, 19 May 2016 04:46 PM (IST)

कोलकाता [मिलन कुमार शुक्ला]। पश्चिम बंगाल की जनता ने एक बार फिर राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के सिर पर जीत का सेहरा बांधा है। थका-हारा वाम मोर्चा और उससे भी अधिक थका हुआ कांग्रेस गठजोड़ विधानसभा चुनाव के रुझानों में तृणमूल कांग्रेस की आंधी के आगे लगभग उड़ चला है। वैसे चुनावी पंडितों के आंकलन और इसके बाद एग्जिट पोल ने पहले ही बंगाल में वाम-कांग्रेस गठबंधन की वापसी की सूरत को नकार दिया था इसलिए इसमें हैरत की बात नहीं दिखती।

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गौरतलब है कि 'ठंडा माथा, कुल-कुल फिर आएगी तृणमूल' जैसा स्लोगन और विकास की बात करने वाली ममता को जीत की ओर अग्रसर करने वाली कई सारी वजहें रही हैं।

ममता की जीत के कारण

मसलन साल 2011 में वाम मोर्चा को सत्ता से बेदखल कर सत्ता हथियाने वाली ममता बनर्जी सरकार ने अनेकों ऐसी योजनाओं की शुरुआत की है जिसका संबंध सीधे जनसरोकार से है। फिर चाहे बात कन्याश्री योजना के तहत छात्राओं को साइकिल देने की हो या फिर छात्रवृति प्रदान करने की। इतना ही नहीं खाद्य साथी जैसी योजना के तहत दो रुपये किलो चावल व गेहूं मुहैया करना भी ममता की वापसी में अहम साबित हुआ है। यहां ममता की जीत में अहम भूमिका निभाने वाली बंगाल की करीब 30 फीसद अल्पसंख्यक समुदाय की आबादी का जिक्र करना भी बेहद आवश्यक है।

गत विधानसभा चुनाव की तरह 2016 के विधानसभा चुनाव में भी यह माना जा रहा है कि ज्यादातर का झुकाव तृणमूल की तरफ हुआ है। मालूम हो कि राज्य की कुल 294 विधानसभा सीटों में से तकरीबन 70 सीटों पर वे बहुसंख्यक हैं और हार-जीत तय करने की प्रबल भूमिका में है। जबकि 55 अन्य सीटों पर उनकी अच्छी-खासी तादाद है। कुल 125 विधानसभा क्षेत्रों में इनकी गहरी पैठ है।

इसके अलावा ममता सरकार ने छोटे-छोटे क्लबों और संगठनों को भी काफी बजट देकर मदद की है। अनुसूचित जाति, जनजाति समेत महिला वोटरों में ममता की गहरी पैठ है। फ्लाइओवर हादसा हो या नारद स्टिंग आपरेशन इसका कुछ हद तक प्रभाव शहरी इलाके में तो दिखता है लेकिन बंगाल के ग्रामीण इलाकों में अभी भी दीदी की जबरदस्त पैठ है।

माओवादियों की गोलियों से थर्राहट महसूस करने वाले जंगलमहल के जिले आज शांत हैं। ममता बनर्जी ने 2011 में सत्ता हासिल करने के बाद जंगलमहल इलाके में शांति बहाली करने का भरसक प्रयास किया है जो आज पटल पर भी दिखता है। मतलब स्पष्ट है कि ठान कर अंजाम तक पहुंचाने वाली ममता बनर्जी के लिए इस चुनाव ने काफी कुछ दिया है।

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