Move to Jagran APP

गैस का विकल्प बनेगा भूसी का स्टोव

धान की भूसी से बिजली के उत्पादन में क्रांतिकारी कदम रखने व उसमें सफलता हासिल करने वाले बक्सर के अशोक पोद्दार ने धुआं रहित चूल्हे को ईजाद किया है। एक किलो भूसी से पचास मिनट तक जलने वाला यह चूल्हा रसोई गैस का अच्छा खासा विकल्प साबित हो सकता है। खास बात यह कि रसोई गैस की अपेक्षा यह बहुत ज्यादा सस्ता पड़ेगा

By Edited By: Published: Sat, 23 Aug 2014 01:44 PM (IST)Updated: Sat, 23 Aug 2014 01:44 PM (IST)
गैस का विकल्प बनेगा भूसी का स्टोव

बक्सर [राजेश तिवारी]। धान की भूसी से बिजली के उत्पादन में क्रांतिकारी कदम रखने व उसमें सफलता हासिल करने वाले बक्सर के अशोक पोद्दार ने धुआं रहित चूल्हे को ईजाद किया है। एक किलो भूसी से पचास मिनट तक जलने वाला यह चूल्हा रसोई गैस का अच्छा खासा विकल्प साबित हो सकता है। खास बात यह कि रसोई गैस की अपेक्षा यह बहुत ज्यादा सस्ता पड़ेगा और लोगों की पहुंच के भीतर होगा।

loksabha election banner

रसोई गैस की कीमतों में भी इजाफा हो रहा है। बगैर सब्सिडी रसोई गैस आज हर किसी के वश की बात नहीं रह गयी है। ऐसे में लोगों को अगर इसका विकल्प मिले तो यह सोने पर सुहागा साबित हो सकता है। इसका निर्माण करने वाले अशोक पोद्दार कहते हैं कि अमूमन दो रुपये किलो भूसी पड़ता है और ढाई सौ रुपये के खर्च पर एक माह का भोजन आसानी से बनाया जा सकता है। जबकि, रसोई गैस से यह कतई संभव नहीं है। चूल्हे की कीमत भी छह हजार रुपये के आसपास पड़ती है।

पांच सेकेंड में शुरू हो जाता है गैस बनना

यह कूक स्टोव धान की भूसी से गैस बनाता है फिर वही गैस जलती है। बड़ी बात यह है कि इसमें धुआं नाम की चीज नहीं है। इससे धुआं नहीं होता है बल्कि, पांच सेकेंड में इसमें गैस बनना शुरू हो जाता है। फिर इसे आसानी से जलाया जा सकता है। इसे जलाने के लिए किरासन की आवश्यकता नहीं होती।

फोर्स ड्राफ्ट तकनीक पर होता है काम

पोद्दार कहते हैं धुआं रहित यह चूल्हा फोर्स ड्राफ्ट तकनीक पर काम करता है। इस तकनीक के अंतर्गत तीन लेयर में बने चूल्हे में हवा का दबाव तैयार किया जाता है। वही, हवा दबाव के साथ गैस के रूप में उपर की तरफ आती है और वहां आकर जलती है। इसका तेज रसोई गैस से जलने वाले चूल्हे से कम नहीं अपितु, ज्यादा होता है।

पहले विश्वयुद्ध के समय की तकनीक

पोद्दार के मुताबिक फोर्स-ड्राफ्ट की यह तकनीक कोई नयी तकनीक नहीं है। यह तकनीक काफी पुरानी है। पहले विश्वयुद्ध के समय आक्सीजन की कमी वाले पहाड़ी क्षेत्रों में चूल्हा जलाने के लिए सैनिक इस तकनीक का इस्तेमाल करते थे। इस तकनीक में धुआं नहीं होने की वजह से दुश्मनों को उनके लोकेशन का पता नहीं चल पाता था।

मोतिहारी में है अधिक मांग

जिले में तो कुछेक लोग ही अभी इस चूल्हे का उपयोग कर रहे हैं। लेकिन, बताया जाता है कि मोतिहारी जिले में इसकी काफी अधिक मांग है। वहां लोग इसे खूब पसंद कर रहे हैं। श्री पोद्दार ने बताया कि वहां से आने वाले डिमांड के अनुसार इसको वहां प्रेषित कर दिया जाता है। संयोग से श्री अशोक के यहां मिले मोतिहारी के राम प्रवेश ने कहा कि उनके जानने वाले पचास से ज्यादा लोग इस चूल्हे का इस्तेमाल कर रहे हैं। वे किसान हैं और उनके यहां भूसी की कमी नहीं है। चूल्हे के धुआं रहित होने की खासियत के कारण वे यहां उसे लेने आये हैं।

कहते हैं उपयोगकर्ता

भूसी वाले स्टोव से ईंधन की समस्या खत्म हो गयी है। पहले कोयला और किरासन न होने पर दुकान बंद करना पड़ता था। अब भूसी उपलब्ध रहने पर 'कुक स्टोव' का ही इस्तेमाल करता हूं।

- ललन, चाय दुकानदार, ठठेरी बाजार, बक्सर।

एमडीएम में बेहतर संभावनाएं

प्राथमिक व माध्यमिक में विद्यालयों में बनने वाले मध्याह्न भोजन में सबसे बड़ी समस्या ईंधन को लेकर होती है। अधिकांश जगहों पर लकड़ी के चूल्हे का इस्तेमाल किया जाता है और उससे निकलने वाले धूएं से छात्रों को काफी परेशानी होती है। शिक्षक रामनारायण राम कहते हैं कि सस्ता भूसी के ईंधन से चलने वाले स्टोव का एमडीएम में बेहतर इस्तेमाल हो सकता है।

पढ़ें: रसोई गैस न मिलने से उपभोक्ता परेशान

पढ़ें: प्राकृति गैस मूल्य निर्धारण का नया फॉर्मूला 30 सितंबर तक : केंद्र


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.