सुप्रीमकोर्ट जांचेगा अभिव्यक्ति की आजादी का दायरा
सरकारी पदों पर बैठे लोगों की दुष्कर्म जैसे अपराध के बारे में बयानबाजी विचार के दायरे में होगी।
जागरण ब्यूरो, नई दिल्ली। सुप्रीमकोर्ट अभिव्यक्ति की आजादी के दायरे पर एक बार फिर विचार कर रहा है। कोर्ट इस मौलिक अधिकार को निष्पक्ष ट्रायल के मौलिक अधिकार से तुलना कर जांचे परखेगा। ये देखा जाएगा कि बोलने की आजादी किस हद तक है। सरकारी पदों पर बैठे लोगों की दुष्कर्म जैसे अपराध के बारे में बयानबाजी विचार के दायरे में होगी।
बुलंदशहर सामूहिक दुष्कर्म कांड में मंत्री के जिम्मेदार पद पर रहते हुए आजम खान द्वारा मामले के बारे में टिप्पणी करने का मसला जब कोर्ट के सामने आया तो कोर्ट ने इस कानूनी पहलू पर विस्तृत सुनवाई का मन बना कर चार कानूनी प्रश्न तय कर दिये थे। बुधवार को ये मामला जब सुनवाई पर आया तो कोर्ट की मदद कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता फली नारिमन ने कहा कि कोर्ट को देखना होगा कि इस मामले में कहां तक जा सकते हैं। उन्होंने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(ए) (अभिव्यक्ति की आजादी) और इस आजादी पर तर्कसंगत पाबंदियों 19(2) पर विचार करते समय काफी सावधान रहना होगा।
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उनका कहना था कि संविधान में इस तरह की टिप्पणियों पर रोक नहीं है। इस पर कोर्ट ने अभिव्यक्ति की आजादी पर संविधान में दी गई पाबंदियों का जिक्र किया जिसमें कानून व्यवस्था और नैतिकता व शिष्टाचार को देखते हुए पाबंदियों की बात कही गई है। मामले की सुनवाई कर रही जस्टिस दीपक मिश्रा की पीठ ने कहा कि ये देखना होगा कि क्या अनुच्छेद 19(1)(ए) में मिला अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार पूर्ण है। क्या कोई भी सरकारी पद पर बैठे व्यक्ति को अधिकार है कि वो दुष्कर्म जैसे अपराध की पीडि़ता पर टिप्पणी करे। जिससे पीडि़ता के अधिकार प्रभावित होते हों।
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जस्टिस मिश्रा ने कहा कि महिलाओं पर इस तरह की टिप्पणी संवैधानिक मुद्दा है। कोर्ट ने कहा कि उदाहरण के तौर पर अगर कोई एफआइआर दर्ज होती है तो अभियुक्त इस पर कोई भी टिप्पणी कर सकता है लेकिन क्या पुलिस महानिदेशक के पद पर बैठा अधिकारी ये टिप्पणी कर सकता है कि मामला राजनैतिक साजिश का नतीजा है। ऐसे में जांच का सवाल ही कहां रह जाएगा।
हालांकि अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी का कहना था कि नैतिकता और शिष्टाचार के आधार आपराधिक अभियोजन नहीं चलाया जा सकता। ऐसे तो कोई कुछ बोल ही नहीं पाएगा। संसद में भी बोला जाता है उस पर भी विचार करना होगा। लेकिन पीठ ने कहा कि यहां आपराधिक अभियोजन का मामला नहीं है। और संसद के अंदर बोला गया कोर्ट के विचार का मसला नहीं है। पीठ के दूसरे न्यायाधीश एएम खानविल्कर ने कहा कि इस मामले को संविधान में दिये गये मूल कर्तव्यों के परिपेक्ष्य में भी देखा जाना चाहिये।
इसके बाद नारिमन ने कहा कि मामले में विचार के पहलू और बिंदु तैयार करने के लिए उन्हें थोड़ा समय चाहिये होगा। कोर्ट में मौजूद वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे से भी कोर्ट ने सुनवाई में मदद करने का आग्रह किया। इस मुद्दे पर जब कोर्ट ने साल्वे के विचार पूछे तो उन्होंने कहा कि सवाल ये नहीं है कि अनुच्छेद 19(1)(ए) मे मिली अभिव्यक्ति की आजादी पर सिर्फ 19(2) में तय पाबंदियों पर ही रोक लग सकती है। सवाल है कि 19(1)(ए) में मिली अभिव्यक्ति की आजादी कहां तक है क्या कोई किसी को अपशब्द कहेगा तो वो अभिव्यक्ति की आजादी में आयेगा। नहीं ऐसा नहीं है। इन्हीं सब पहलू पर विचार करना होगा।
पीठ ने कहा कि विचार का मुख्य प्रश्न यह है कि क्या अनुच्छेद 19(1)(ए) में मिली अभिव्यक्ति की आजादी सिर्फ 19(2) के तहत नियंत्रित की जा सकती है या फिर अनुच्छेद 21 के निष्पक्ष ट्रायल और गरिमा पूर्ण जीवनजीने के अधिकार के तहत भी उस पर नियंत्रण लगाया जा सकता है। इस मामले में 20 अप्रैल को फिर सुनवाई होगी।