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    राजग सरकार के 2 सालः अब दिख रही भारतीय कूटनीति की स्‍पष्‍ट दिशा

    By Monika minalEdited By:
    Updated: Wed, 25 May 2016 04:01 PM (IST)

    दो वर्षों के शासनकाल में पीएम मोदी ने यह साबित कर दिया है कि भारत वैश्विक लीडर के तौर पर अपने हितों के मुताबिक अपनी भूमिका लागू करने का माद्दा रखता है।

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    नई दिल्ली, जयप्रकाश रंजन। दो वर्ष पहले मई, 2014 में जब पीएम नरेंद्र मोदी की अगुवाई मे देश में नई सरकार का गठन हुआ तब शायद भारत आजादी के बाद कूटनीतिक स्तर पर अपने सबसे चुनौतीपूर्ण दौर से गुजर रहा था। भ्रष्टाचार और नीतियों को लटकाने की वजह से भारत की छवि लगातार खराब हो रही थी। भारत के साथ रणनीतिक रिश्ते बनाने के लिए सब कुछ दांव पर लगाने वाला अमेरिका भी कदम पीछे खींचता सा दिख रहा था।

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    दुनिया के पांच अहम देशों के संगठन ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) में से भारत की जगह एक अन्य 'आई (इंडोनेशिया) को शामिल करने की बात होने लगी थी। रक्षा सौदे नहीं होने की वजह से फ्रांस, रूस, ब्रिटेन जैसे देशों का व्यवहार रुखा सा था। दक्षिण एशियाई देशों के साथ रिश्तों पर भी गर्द जमती जा रही थी। अब इस हालात की तुलना मौजूदा वक्त से करते हैं।

    मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में दक्षिण एशिया के सरकारों के प्रमुखों क आमंत्रित कर यह संकेत दे दिया था कि वह कूटनीतिक मामले में लीक से हट कर चल सकते हैं। इन दो वर्षों में मोदी ने इस तरह के कई उदाहरण पेश किये हैं जो बताते हैं कि भारत वैश्विक लीडर के तौर पर अपनी भूमिका को ना सिर्फ समझता है बल्कि उसे अपने हितों के मुताबिक लागू करने का भी माद्दा रखता है।

    पिछले दो वर्षों के दौरान गणतंत्र दिवस पर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद को राजकीय मेहमान बनाना वैश्विक स्तर पर भारत के बढते सम्मान का ही नतीजा है। ओबामा ने मोदी को अपने शासनकाल का अंतिम राजकीय मेहमान के तौर पर आमंत्रित किया है। अगले महीने मोदी अपने दो वर्ष के कार्यकाल के दौरान चौथी बार अमेरिका जाएंगे। मोदी इन दो वर्षों में 36 देशों की यात्रा पर जा चुके हैं। इनमें बेल्जियम, सेशेल्स जैसे कई छोटे देश है तो इस सूची में ईरान व सउदी अरब भी शामिल है जो बदलते वैश्विक माहौल में भारत के नई रणनीतिक साथी बन रहे हैं।

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    विदेश दौरों के दौरान प्रवासी भारतीयों के साथ सीधा संवाद मोदी की अपनी कूटनीति का हिस्सा है। रूस, इजरायल और यूरोपीय संघ के साथ किस तरह से आगे बढ़ा जाए, इसको लेकर विदेश मंत्रालय के अधिकारी अब किसी उहापोह में नहीं है।

    मजबूत लीडर, स्पष्ट दिशा से बढ़ा भरोसा

    भारतीय कूटनीति में अब एक स्पष्ट दिशा दिख रही है। यह आत्मविश्वास से लबरेज है। यह आत्मविश्वास का ही नतीजा था कि मोदी ने सत्ता संभालने के कुछ ही हफ्तों बाद जापान के पीएम शिंजो एबे के साथ व्यक्तिगत दोस्ती की नींव रखी। इसके वैश्विक कूटनीति में चीन को प्रतिस्पर्धा देने के लिए भारत और जापान के बीच नए गठबंधन के तौर पर देखा गया। यह मुसीबत में फंसे पड़ोसी देशों (नेपाल, श्रीलंका) की दो कदम आगे बढ़ कर मदद करता है तो घरेलू राजनीतिक तनाव के बावजूद पड़ोसी देशों (बांग्लादेश) के साथ किये गये समझौते को लागू करता है। वक्त पडऩे पर यह दूसरे देशों में बसे अपने नागरिकों को बाहर निकालने ( यमन) के लिए हर ताकत व कूटनीति का इस्तेमाल करता है।

    कई जानकार मानते हैं कि मूल रूप से मोदी सरकार की विदेश नीति पिछले सरकारों की नीति से कोई बहुत अलग नहीं है लेकिन जो चीज इसे अलग बनाती है वह है समय पर फैसला करना और वैश्विक मंच पर सक्रियता बनाये रखना। इसी तरह से जिस तरह से भारत अपनी आर्थिक नीतियों को वैश्विक कूटनीति का हिस्सा बनाया है वह भी अपनी तरह का पहला प्रयास है।

    मोदी की विदेश यात्राओं में सरकार की मेक इन इंडिया, जन धन योजना, स्किल इंडिया और डिजिटल इंडिया सरीके कार्यक्रमों का जिस प्रमुखता से उल्लेख होता है वह नए आत्मविश्वास को बताता है। भारतीय पीएम अब विदेशी मदद के लिए बाहर नहीं जाता बल्कि वह अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन में अंतरराष्ट्रीय सोलर एसोसिएशन (आइएसए) जैसे संगठन को स्थापित करने की पहल करता है।

    चीन से निबटने की चुनौती

    मोदी सरकार के इन दो वर्षों के कार्यकाल में एक चीज जो सबसे ज्यादा मुखर हुई है वह है भारत और चीन के रिश्ते आने वाले दिनों में पूरे एशिया में कूटनीति की दशा व दिशा तय करेंगे। राजग सरकार ने इन दो वर्षों में स्पष्ट कर दिया है कि चीन के साथ अब जो होगा आमने सामने होगा। भारत ने अब खुल कर स्वीकार कर लिया है कि चीन उसका अहम प्रतिद्वंदी है और दोनों देशों के बीच जो भी तनाव के कारण है उसका समाधान खोजने की हर कोशिश होनी चाहिए। चीन के राष्ट्रपति शी शिनफिंग के भारत आने के बाद मोदी भी चीन जा चुके हैं। सिर्फ पिछले छह महीने में भारत के वित्त मंत्री, गृह मंत्री, रक्षा मंत्री,राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार चीन द्विपक्षीय यात्रा पर जा चुके है। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भी इस हफ्ते चीन जाने वाले हैं। यानी भारत हरसंभव कोशिश कर रहा है कि चीन के साथ जो भी विवाद है उसका बातचीत से समाधान निकले। लेकिन चीन के साथ कूटनीति यही खत्म नहीं होगी।

    जापान और अमेरिका के विदेश मंत्रियों के साथ भारत के विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की विशेष बैठक को चीन की मीडिया ने अपने देश के खिलाफ एक बड़ी तैयारी के तौर पर पेश किया। चीन के बढ़ते प्रभुत्व से परेशान आस्ट्रेलिया और जापान भारत को अपना अहम रणनीतिक साझेदार घोषित कर चुके हैं। जापान भारत के साथ चीन के लिए बेहद संवेदनशील माने जाने वाले हिस्से में नौ सैनिक युद्धाभ्यास कर चुका है। हाल ही में अमेरिका के प्रतिनिधि सभा ने भारत को एक नाटो देश की तरफ से सैन्य मदद देने को लेकर जो विधेयक पारित की है उसे भी चीन से जोड़ कर देखा जा रहा है।

    दो साल का कामयाब सफर

    लेकिन पड़ोसी की चुनौतियां पड़ रही हैं भारी

    अंतरराष्ट्रीय मंच पर निश्चित तौर पर मोदी सरकार के पिछले दो वर्षों के कार्यकाल काफी उल्लेखनीय रहे हैं लेकिन पड़ोसी देश अभी भी बड़ी चुनौती बने हुए हैं। खास तौर पर पाकिस्तान व नेपाल को साधने में सरकार की कमजोरी साफ तौर पर दिखती है। पाकिस्तान के साथ रिश्ते तो पहले भी तनावपूर्ण ही रहे है लेकिन नेपाल भारत के लिए एक नया सरदर्द बन कर उभरा है। राजग ने इन दोनों देशों के साथ भारत के रिश्तों को नया आयाम देने के लिए लीक से हट कर चलने की कोशिश की है लेकिन उसके कोई सकारात्मक परिणाम सामने नहीं आये हैं। पाकिस्तान के साथ रिश्ते को पटरी पर लाने के लिए मोदी अचानक लाहौर पीएम नवाज शरीफ के घर पहुंच कर जो माहौल बनाने की कोशिश की थी उस पर पठानकोट हमले ने पानी डाल दी है। समग्र वार्ता शुरू करने की भारत की कोशिश पटरी से उतर चुकी है। इसी तरह से भूकंप से प्रभावित नेपाल को भारत ने जिस तरह से बढ़ चढ़ कर मदद दे कर वहां की जनता के दिल में जगह बनाई थी वह मधेशी आंदोलन की वजह से खत्म हो चुकी है।

    नेपाल के पीएम ओपी शर्मा ओली ने ने साफ संकेत दे दिया है कि वह चीन के हाथ में खेलने को तैयार हैं। निश्चित तौर पर पीएम नरेंद्र मोदी और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को पाक व नेपाल के साथ रिश्तों को पटरी पर लाने के लिए कुछ अतिरिक्त कौशल दिखानी होगी। ये दोनों देश भारतीय कूटनीति की सबसे बड़ी चुनौती होंगे। वैसे पड़ोस में बांग्लादेश के साथ भारत के रिश्ते बहुत ही परिपक्वता के साथ आगे बढ़ रहे हैं।

    मोदी सरकार की कूटनीतिक चुनौती

    1. पाकिस्तान के साथ रिश्तों को सामान्य बनाना 2. नेपाल में भारत विरोधी तत्वों को शांत करना 3. चीन के बढ़ती शक्ति के साथ संतुलन बनाना 4. पश्चिम एशिया में बदलते समीकरण के साथ सामंजस्य बनाना 5. यूरोपीय संघ के साथ मुक्त व्यापार समझौते को तय करना 6. लंबी अवधि में देश की ऊर्जा सुरक्षा को सुनिश्चित करना 7. अफगानिस्तान में पाक समर्थक समूहों पर लगाम लगाना 8. रूस के साथ दशकों पुराने सामरिक रिश्ते को नया आयाम देना।