दलितों की जिंदगी में जगाई उम्मीद, मिटा रहे छुआछूत की भावना
जूठन उठाते परिवारों के लिए छोड़ दी दिल्ली वाली जिंदगी, सरनेम रखा डोम, बदलाव के लिए बस गए महादलित बस्ती में...
खगडिय़ा (निर्भय)। संजीव उस जाति से ताल्लुक नहीं रखते, जिन्हें गांवों में ‘डोम’ कहा जाता है, फिर भी उन्होंने अपना सरनेम ‘डोम’ रख लिया है। दरअसल, यह उन जैसा दिखने की कोशिश है, जिनके लिए संजीव शहर की अच्छी जिंदगी छोड़कर महादलित बस्ती में कुटिया बनाकर रहते हैं। जातियों की बही के अनुसार संजीव सवर्ण थे। उनका जन्म सवर्ण परिवार में हुआ था। दिल्ली के प्रसिद्ध किरोड़ीमल कॉलेज से बीकॉम तक पढ़ाई हुई। मेट्रो शहर की रंग-बिरंगी दुनिया में रच-बस रहे थे। मॉडलिंग का सपना देखते थे। फिर 2005 में एक दिन अचानक उनके अंतस में चिंगारी फूटी। उन्होंने समाज के सबसे निचले पायदान पर बैठे महादलितों के उत्थान के लिए अपना जीवन समर्पित कर देने की ठानी। हालांकि सवर्ण होते हुए महादलितों के साथ उठने-बैठने की उन्होंने भारी कीमत चुकाई। धीरे-धीरे अपने भी दूर हो गए।
छुआछूत मिटाने को कृत संकल्प
महादलित बस्ती के लोगों को गंगा की मुख्य धारा में स्नान से रोका जाता था। संजीव ने 2006 में गंगा तट से परबत्ता तक कलश यात्रा निकाली। महादलितों ने गंगा की मुख्यधारा से जल भरा। यह छुआछूत पर ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ थी। 2009 से 2012 तक ‘बहिष्कृत चेतना यात्रा’ निकाली। तब से संजीव ‘लौट चलो स्कूल की ओर अभियान चला रहे। महादलित परिवार के बच्चे अब स्कूल जाते हैं। नशे के खिलाफ लड़ाई जारी है। संजीव की चर्चा धारावाहिक सत्यमेव जयते में भी हुई। काम को स्वीकृति मिलने लगी, लेकिन अब भी जूझ रहे हैं। कहते हैं, मेरे जैसे कई लोगों को बिहार की महादलित बस्तियों में जरूरत है।
‘अपनों’ के लिए अपने छूटे
वह 2005 के पूस की सर्द रात थी। खगड़िया के सुदूर गांव कन्हैयाचक में श्राद्ध का भोज चल रहा था। वहां संजीव की बहन की ससुराल है। संजीव बहन से मिलने आए थे। उस रात जूठे पत्तलों से खाना बटोर रहे महादलित परिवार के लोगों को देख संजीव क्षुब्ध हो गए। वह दिल्ली तो लौटे, लेकिन मन कन्हैयाचक में उलझ गया था। हलचल मची रही। एक दिन विक्रमशिला एक्सप्रेस पकड़ फिर कन्हैयाचक पहुंच गए। अगले दिन से महादलित बस्ती में उठना-बैठना शुरू किया। वह उन्हें समझ रहे थे, समझा रहे थे। महादलितों के साथ उठने-बैठने के ‘अपराध’ में बहन की ससुराल से निकाल दिया गया। वह अपने पैतृक गांव शिरोमणि टोला, नयागांव रहने लगे। वहां भी कई बाधाएं खड़ी थी। मन खराब हुआ। संजीव आखिरकार उन्हीं लोगों के बीच पहुंच गए, जिनकी दशा उन्हें बेचैन करती थी। संजीव ने परबत्ता के महादलित डोम टोला में ही एक झोपड़ी बना कर रहना शुरू कर दिया।
जलांचल में महादलितों की मुक्ति के लिए शिक्षा को हथियार बनाकर लड़ाई शुरू है। दिक्कतों के बाद भी लड़ाई जारी है। आज महादलितों के बच्चे स्कूल जा रहे हैं। कल वे समाज से अपना हिस्सा लेकर रहेंगे।- संजीव डोम, सामाजिक कार्यकता
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