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अमित शाह- जिसने बदल दी उप्र भाजपा की तस्वीर और तासीर

मई 2013 में बतौर प्रभारी अमित शाह उत्तर प्रदेश पहुंचे तभी शायद उन्होंने भविष्य की रूपरेखा तय कर ली थी। विधिवत कामकाज संभालते ही पहली बैठक में पदाधिकारियों को तौर-तरीकों में बदलाव का संदेश दे दिया था। शाह की हिदायत थी कि वरिष्ठ नेता से लेकर कार्यकर्ता तक गणेश परिक्रमा की संस्कृति छोड़ कर जनता के बीच रहें। पार्टी मुख्यालय में ही हमेशा दिखने वाले नेताओं से जवाब तलब होने लगा तो इसका असर भी दिखा। - मन में कुछ ठान कर उत्तर प्रदेश पहुंचे थे शाह - राज्य में राजनीति की बदली संस्कृति ------------------ अवनीश त्यागी, लखनऊ : मई 2013 में बतौर प्रभारी अमित शाह उत्तर प्रदेश पहुंचे तभी शायद उन्होंने भविष्य की रूपरेखा तय कर ली थी। विधिवत कामकाज संभालते ही पहली बैठक में पदाधिकारि

By Edited By: Published: Wed, 09 Jul 2014 06:56 PM (IST)Updated: Wed, 09 Jul 2014 06:56 PM (IST)

लखनऊ [अवनीश त्यागी]। मई 2013 में बतौर प्रभारी अमित शाह उत्तर प्रदेश पहुंचे तभी शायद उन्होंने भविष्य की रूपरेखा तय कर ली थी। विधिवत कामकाज संभालते ही पहली बैठक में पदाधिकारियों को तौर-तरीकों में बदलाव का संदेश दे दिया था। शाह की हिदायत थी कि वरिष्ठ नेता से लेकर कार्यकर्ता तक गणेश परिक्रमा की संस्कृति छोड़ कर जनता के बीच रहें। पार्टी मुख्यालय में ही हमेशा दिखने वाले नेताओं से जवाब तलब होने लगा तो इसका असर भी दिखा।

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इसी बदलाव का परिणाम था कि प्रदेश में नरेंद्र मोदी की सभी आठों विजय शंखनाद रैलियां जबरदस्त रूप से सफल रहीं। लखनऊ का रमाबाई मैदान भी जब भाजपा समर्थकों की भीड़ से भरा तो बसपा नेतृत्व की बेचैनी बढ़ी। ध्यान रहे, रमाबाई मैदान में बसपा के अतिरिक्त अन्य कोई भी राजनीतिक दल रैलियां करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता था। शाह के नेतृत्व में भाजपा ने यह कारनामा करके दिखाया तो उत्तर प्रदेश से ऐतिहासिक चुनावी नतीजों का आभास होने लगा था।

टिकट बंटवारे में सबकी सुनी :

उत्तर प्रदेश में टिकटों को बंटवारा नेतृत्व के लिए बड़ा सिरदर्द था। आंतरिक खींचतान और तमाम दबावों के बावजूद अमित शाह ने जातिगत समीकरण साधने के साथ अन्य दलों के जिताऊ नेताओं को पार्टी में लेने में हिचक नहीं दिखाई जिसका नतीजा सामने है। वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में मात्र 47 विधायकों में सिमटी भाजपा के 71 और गठबंधन सहयोगी अपना दल के दो सांसद विजयी हुए। प्रदेश की 80 में से 73 सीटों पर केसरिया फहराने से दिल्ली में बहुमत वाली सरकार बनने का रास्ता साफ हुआ।

रणनीतिक बयानों का कमाल :

चुनाव के दौरान अमित शाह के रणनीतिक बयानों ने भी माहौल बनाने में महती भूमिका निभाई। मतदान के शुरुआती चरण में शामली और बिजनौर की बैठकों में शाह के बदला लेने वाले बयानों पर खासा बवाल हुआ। आजमगढ़ को आतंकवाद का गढ़ बता देने पर शाह विपक्ष के निशाने पर रहे। चुनाव आयोग को नोटिस जारी कर उनकी बैठकों पर रोक लगानी पड़ी। सांप्रदायिक दंगों में झुलस रहे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इन बयानों का खासा असर हुआ। पश्चिम से चली मोदी सुनामी ने उप्र से विपक्ष का सफाया कर दिया।

प्रदेश महामंत्री स्वतंत्रदेव सिंह का कहना है कि अमित शाह न केवल कुशल रणनीतिकार हैं वरन संगठनात्मक फैसले लेने और उन पर मजबूती से डटे रहने की उनमें अद्भुत क्षमता है। इसी का नतीजा है कि प्रदेश में भाजपा आज भी सड़कों पर संघर्ष करती दिख रही है। शायद 2017 के विधानसभा चुनावों के लिए..।

पढ़ें : अमित शाह का गुजरात से दिल्ली तक का सफर


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