पुत्रमोह में लड़ाई हार गए लालू, फिर हाशिये पर राजद प्रमुख
पुत्रमोह में लालू यह लड़ाई हार बैठे और 80 विधायकों की पार्टी के मुखिया होने के बावजूद फिर हाशिये पर खड़े हो गए।
राज्य ब्यूरो, पटना : विधानसभा चुनाव के दौरान राजद प्रमुख लालू प्रसाद ने भाजपा को बिहार में शिकस्त देकर महागठबंधन को विजेता बनाने में अहम भूमिका निभाई थी, लेकिन 20 महीने भी सत्ता को संभालकर नहीं रख पाए। पुत्रमोह में लालू यह लड़ाई हार बैठे और 80 विधायकों की पार्टी के मुखिया होने के बावजूद फिर हाशिये पर खड़े हो गए। राजद-जदयू-कांग्रेस की संयुक्त सरकार में लालू प्रसाद ने अपने छोटे पुत्र तेजस्वी यादव को उपमुख्यमंत्री एवं बड़े पुत्र तेजप्रताप यादव को स्वास्थ्य विभाग की जिम्मेदारी दिलवाई थी। अपने पुत्रों को आगे करने की कोशिश में लालू ने किसी की नहीं सुनी। कई मौकों पर राजनीतिक शुचिता की भी उपेक्षा करने से नहीं चूके। तेजस्वी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे तो लालू ने पुत्र प्रेम में अपनी आंखें बंद कर लीं।
महागठबंधन सरकार के मुखिया के संकेत को समझने की कोशिश नहीं की और न ही जदयू के प्रवक्ताओं की भाषा को भाव दिया। चार महीने से जारी भाजपा के हमले को भी लालू ने नजरअंदाज किया। यहां तक कि जब सीबीआइ एवं आयकर के छापे पड़ने लगे तो भी मौन साधे रखा। हालात के नजाकत को समझने की कोशिश नहीं की। जाहिर है कि पुत्रमोह ने लालू को ऐसा मजबूर कर दिया कि न तो प्रदेश के विकास की चिंता हुई और न ही राजनीतिक शुचिता की।
लालू का परिवार प्रेम कोई पहली बार सामने नहीं आया है। चारा घोटाले में 1997 में जेल जाने के पहले भी उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार की सत्ता सौंप दी थी। लालू जनता दल में रहते हुए 1990 और 1995 में बिहार के मुख्यमंत्री बने थे। इसी दौरान चारा घोटाला में फंसने के बाद वह जेल चले गए। जमानत पर बाहर निकले तो जनता दल से अलग होकर उन्होंने 5 जून, 1997 को राष्ट्रीय जनता दल (राजद) का गठन किया और अपनी पार्टी के सर्वेसर्वा बन गए। तब से लेकर 2005 तक वह बिहार की सत्ता पर काबिज रहे। 2005 के विधानसभा चुनाव में पहली बार लालू को बेदखल होना पड़ा। इसके पहले वह केंद्र की संप्रग सरकार में मंत्री बनाए गए थे।