मुनव्वर राणा और वसीम बरेलवी ने मशहूर शायर निदा फाजली को ऐसे किया याद
हिंदी-उर्दू के साहित्य में अच्छा लिखने वालों का वैसे ही अकाल है और उस पर यह दुखदायी खबर आ गई कि निदा भाई का इंतकाल हो गया। भारत के इस रत्न का जाना साहित्य का बहुत बड़ा नुकसान है।’ इधर मेरी भी तबीयत कुछ ठीक नहीं चल रही और निदा
लखनऊ। हिंदी-उर्दू के साहित्य में अच्छा लिखने वालों का वैसे ही अकाल है और उस पर यह दुखदायी खबर आ गई कि निदा भाई का इंतकाल हो गया। भारत के इस रत्न का जाना साहित्य का बहुत बड़ा नुकसान है।’ इधर मेरी भी तबीयत कुछ ठीक नहीं चल रही और निदा भाई के इंतकाल की खबर सुनकर और खराब हो गई। उनके साथ गुजारे समय की याद आने लगी और आंख नम हो गई। मेरी तबीयत खराब न होती तो मैं भी मुंबई जाकर उनकी अंतिम विदाई में शामिल होता।
मुझे तो उनका लिखा याद आ रहा है, ‘मैं रोया परदेस में, भीगा मां का प्यार, दुख ने दुख की बात की, बिन चिट्ठी बिन तार’।।
निदा भाई को हर कोई अपने दिलों में बसाए हुए है। वह उर्दू और हिंगी साहित्य के बीच एक पुल की हैसियत से हमारे बीच रहे। उन्होंने पूरी उम्र एकता और भाईचारे के लिए काम किया। पूरी जिंदगी वह सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ते रहे। इस वजह से उनका विरोध भी हुआ।
उनके एक शेर ‘सूरज को चोंच में लिए मुर्गा खड़ा रहा, खिड़की के पर्दे खींच दिए रात हो गई’ का बहुत विरोध हुआ।
वह पहले ऐसे शख्स थे जो अपनी गरीबी के किस्से बड़े ही मजे से बताते थे। आज याद आ रहा है कि कॉलेज के दिनों में जब मैं कोलकाता गया तो उन्हें देखा और उनके शेर सुने, तभी से उनका फैन हो गया। मुझसे लगभग 15 साल बड़े निदा भाई ने किसी कार्यक्रम के लिए मुझसे पैसे तय नहीं किए, जो भी पैसे दिए, खामोशी से रख लिए। उनका पूरा परिवार पाकिस्तान चला गया था, इसलिए वह कभी-कभी उदास हो जाया करते थे, लेकिन उनके चाहने वालों की तादाद हमेशा इतनी रही कि ज्यादा देर उदास नहीं रह पाते थे।
(लेखक मशहूर शायर हैं।)
हमेशा जिंदा रहेंगे निदा
शायर निदा फाजली हमेशा हम लोगों के बीच रहेंगे। पहली दफा फाजली साहब से मुलाकात स्टेज पर हुई थी मगर चंद दिनों में दिल के रिश्ते बन गए। वक्त के साथ ये रिश्ते इतने गहरे होते चले गए कि शब्दों से बयां करना मुश्किल है।
40-45 साल स्टेज पर साथ रहे लेकिन, कभी रिश्तों में तल्खी नहीं हुई। इसकी वजह भी फाजली साहब थे, उनका वह मिलनसार मिजाज था जो हर किसी को कायल बना लेता। दूसरों की इज्जत करना, कोई भी हो, बड़ा या छोटा...उनकी सादगी की शान थे। व्यक्तिगत जिंदगी से अलग झांकें तो सामाजिक पहचान की भी वह मिसाल थे। उर्दू शायरी में उन्होंने बड़ा मुकाम पाया। साहित्य और मंच के लोग उन्हें पंसद करते थे।
उनसे मेरी आखिरी मुलाकात करीब सप्ताह भर पहले 31 जनवरी की रात गोरखपुर में मुशायरा एवं कवि सम्मेलन में हुई। घने कोहरे के बीच हम दोनों ने कलाम पेश किए। वहां हजारों श्रोताओं की भीड़ थी लेकिन कोहरे में कोई नजर नहीं आ रहा था। उनके इंतकाल से शायरी-साहित्य के साथ-साथ मुझे व्यक्तिगत नुकसान हुआ। इसकी भरपाई कभी नहीं हो सकती। फाजली साहब के दिल में वतन और यहां के लोगों को कितनी इज्जत थी, उसकी मिसाल बताता हूं।
उन्हीं के मुंह से सुना था कि मुल्क की आजादी के वक्त हुए विवाद से तंग आकर उनके पिता मुर्तजा हसन और मां जमील फातिमा पाकिस्तान चले गए थे। खास बात यह रही कि घर में 12 अक्टूबर 1938 को तीसरी संतान के रूप में जन्म लेने वाले फाजली को मुल्क छोड़ना बिल्कुल गवारा नहीं था। चूंकि, पिता भी शायर थे इसलिए छोटी सी उम्र में ही पढ़ने का शौक पनप गया। वैसे, जितना उनका व्यक्तित्व खास था, उनका नाम भी उतना ही आकर्षक रहा।
निदा का अर्थ स्वर (आवाज) से है, तो फाजला कश्मीर में एक जगह है। उनके पुरखे वहीं से आकर दिल्ली में बसे थे, इसलिए उपनाम फाजली जोड़ा गया।
वीजा नहीं दिया पाकिस्तान ने :
निदा साहब जब मिला करते तो अपने घर-परिवार की बातें भी साझा करते। उन्होंने बताया था कि पाकिस्तान में बसे पिता का इंतकाल हो गया था मगर वह उनके जनाजे में शामिल नहीं हो सके। उन्हें वीजा नहीं मिला था। उसकी कसक उनके मन में हमेशा बनी रही। हां, पिता के इंतकाल के बाद वह एक मुशायरे में पाकिस्तान गए तो कट्टरपंथियों के निशाने पर आ गए।
खासकर एक शेर के कारण, वो था...‘घर से मस्जिद है बड़ी दूर, चलो किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए’। वहां जबरदस्त घेराव हुआ था मगर फाजली साहब विचलित नहीं हुए। वह यही कहते रहे-मस्जिद इंसान के हाथ बनाते हैं, जबकि बच्चे को अल्लाह अपने हाथों से बनाता है, फिर उसपर कलाम पढ़ना गुनाह कैसा? ऐसे खालिस हिंदुस्तानी थे...हम सबके फाजली।
(लेखक मशहूर शायर हैं।)