'ऐसा विकास किस काम का जिसका भविष्य अंधकारमय हो'
मौजूदा समय में फुटपाथ बनाने की संकल्पना समाप्त हो रही है। यदि कहीं इसका निर्माण किया भी गया है तो वह संकरा होने की वजह से लाभकारी नहीं रह गया है।
सोनल छाया
तेज शहरीकरण की रफ्तार में इंसान उन बुनियादी तथ्यों को भूल गया है जो प्रकृति ने निर्धारित किए हैं। धरती इंसान की तरह अपनी आबादी को नहीं बढ़ा सकती, लेकिन इस वास्तविकता को इंसान नहीं समझना चाहता है। छोटे से लेकर बड़े शहरों में अनियोजित तरीके से टाउनशिप बनाए जा रहे हैं। जमीन पर मालिकाना हक जमाने की दीवानगी इस कदर इंसान पर हावी है कि वह लगातार शहर से सड़क या रेल मार्ग से जुड़े नजदीकी गांवों को कंक्रीट के जंगल में तब्दील करता जा रहा है। जिस जमीन पर कभी फसलों के पैदावार होते थे वहां आज वातानुकूलित मॉल्स में सब्जी व किराने के सामान बेचे जा रहे हैं। जिस खेत को किसान अन्नदाता मानते थे उसे आज कॉरपोरेट्स या बिल्डर अपने कब्जे में कर चुके हैं या करने की तैयारी में हैं। कंक्रीट के जंगल में हर वस्तु की मुंहमांगी कीमत चुकानी होती है। खाद्य पदार्थ एवं उपभोग के अन्य वस्तुओं की कीमत सामान्य तौर पर कस्बानुमा शहरों व गांवों से अधिक होती है। बढ़ते कंक्रीट के जंगल की वजह से भूजल स्तर बहुत नीचे चला गया है। नदी, तालाब, झील, पोखर आदि को या तो मार दिया गया है या फिर उनकी हालात इस कदर खराब कर दी गई है कि वे अंतिम सांसें गिन रही हैं।
खेत-खलिहान को छोड़ दिया जाए तो भी पुराने शहरों में 10 से 15 फीट के सड़क किनारे अपार्टमेंट का जाल बिछाया जा रहा है, जबकि इसमें एक पूरा गांव बसता है। जब एक पूरा गांव 4000 से 5000 वर्ग फुट में बस जाएगा तो नाली एवं ट्रैफिक जनित समस्या उत्पन्न होगी ही। मल-मूत्र सड़कों पर बहेंगे ही। गंदगी की वजह से कुछ लोग बीमार पड़ेंगे और कुछ लोग मरेंगे भी। वहीं नालियों को ढंककर रोड बनाया जा रहा है। तात्कालिक रूप से जरूर इससे ट्रैफिक जाम से राहत मिलेगी, लेकिन नाली जब भर जाएगी तो हालात बदतर हो जाएंगे। वर्तमान समय में मझौले शहरों की हालत अमूमन ऐसी ही है। ऐसे शहरों में गगनचुंबी अट्टालिकाओं का जाल फैल गया है। दो एवं चार पहिया वाहनों की संख्या में अभूतपूर्व बढ़ोतरी हुई है। पतली और संकरी सड़कों पर खोमचे, रेहड़ी और सब्जीवाले का होना स्थिति को और भी गंभीर बना देता है। अगर सड़क पर निर्माण या मरम्मत का कार्य चल रहा हो तो हालात और भी बदतर हो जाते हैं। कई बार कार्यस्थल पर चेतावनी वाला बोर्ड भी प्रदर्शित नहीं होता है, जिससे दुर्घटना घट जाती है।
मौजूदा समय में फुटपाथ बनाने की संकल्पना समाप्त हो रही है। यदि कहीं इसका निर्माण किया भी गया है तो वह संकरा होने की वजह से लाभकारी नहीं रह गया है। न वहां पैदल चला जा सकता है और न ही मोबाइल दुकानें खोली जा सकती हैं। पार्किग की बात तो बेमानी ही है। यदि कहीं फुटपाथ को योजनानुसार विकसित भी किया जाता है तो वहां पर बैरिकेडिंग की व्यवस्था नहीं होती है, जिससे आम नागरिक की जान हमेशा सांसत में बनी रहती है। ट्रैफिक और गाड़ियों की आंख-मिचौली में प्रतिदिन दो-चार लोग गाड़ियों के नीचे आ जाते हैं। ऐसे शहरों में स्ट्रीट लाइट की व्यवस्था ठीक नहीं होती है। जाहिर तौर पर अंधेरा दुर्घटना का कारण बनता है। सड़कों पर बने बेतरतीब ब्रेकर हालात को बद से बदतर बना देते हैं। अब तो कब्रिस्तान पर भी बिल्डरों ने कब्जा जमाना शुरू कर दिया है। उत्सव और शोक सभाओं में शामिल होने तक के लिए जगह नहीं बची है। शादी-ब्याह व शोक सभाएं सड़कों पर आयोजित की जा रही हैं। धरना-प्रदर्शन, वीआइपी या वीवीआइपी आदि के काफिले से ट्रैफिक की व्यवस्था बुरी तरह से धवस्त हो जाती है।
आज बच्चों के लिए घर के बाहर खेलना सपना हो गया है। क्या विकास की ऐसी कीमत चुकाने के लिए हम तैयार हैं? शहरीकरण का उद्देश्य है संसाधनों व सुविधाओं को समुचित तरीके से सभी को मुहैया कराना, लेकिन शहरों का विकास नियोजित तरीके से नहीं हो रहा है। शहरों के बेतरतीब विकास से लोगों को अनेक मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। सवाल का उठना लाजिमी है क्या ऐसे ही विकास की हमें जरूरत है? आधारभूत संरचना में क्रमिक सुधार लाना बेहतर जीवन जीने की पहली शर्त है, किंतु बुनियादी सुविधाओं का अर्थ सिर्फ सड़क, टाउनशिप या गगनचुंबी इमारतें नहीं हैं। पड़ताल से साफ है, अनियोजित विकास से किसी का भला नहीं हो सकता है। सच कहा जाए तो प्रकृति एवं आवाम की बुनियादी जरूरतों को दरकिनार करके विकास की गाड़ी को हम आगे लेकर नहीं जा सकते हैं।
(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)