उम्मीदों पर खरी नहीं उतर रही सरकार की कई योजनाएं, इस पर विचार जरूरी
सर्वेक्षणों के नतीजों की बात की जाए तो पिछले साल की तुलना में मोदी सरकार से संतुष्ट लोगों की संख्या में दो फीसद की गिरावट आई है।
डॉ. नीलम महेंद्र
मार्च 2017 में उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजों के बाद विभिन्न मीडिया सर्वे में जिस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक ऐसे तूफान का नाम दिया जा था, जिसे रोक पाना किसी पार्टी के लिए मुश्किल था, वही मीडिया सर्वे सितंबर आते-आते मोदी के विजयी रथ को ब्रेक लगाते दिख रहे हैं। अगर इन सर्वेक्षणों के नतीजों की बात की जाए तो पिछले साल की तुलना में मोदी सरकार से संतुष्ट लोगों की संख्या में दो फीसद की गिरावट आई है। यानी उन्हें पसंद करने वाले 46 फीसद लोगों की संख्या घटकर 44 पर पहुंच गई है। साथ ही मौजूदा सरकार से असंतुष्ट लोगों की संख्या तीन प्रतिशत से बढ़कर 36 फीसद हो गई है। कल तक जो सोशल मीडिया मोदी की तारीफों से भरा रहता था, आज वह ही विपक्षी दलों द्वारा सरकार के दुष्प्रचार का सबसे बड़ा जरिया बन गया है। अंग्रेजी के एक समाचार पत्र के अनुसार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक अंदरूनी सर्वे में यह बात सामने आई है कि 2019 में मोदी की चुनावी राह में बिछे फूलों की जगह कांटों ने ले ली है। आखिर इन दो महीनों में ऐसा क्या हो गया? इसकी पड़ताल जरूरी है।
जनता जो मोदी के हर निर्णय को सर आंखों पर इस कदर बैठाती थी कि उसे ‘अंधभक्त’ तक का दर्जा दे दिया गया। महंगाई के बावजूद आम आदमी यह मानता है कि देश की बागडोर ईमानदार व्यक्ति के हाथ में है और नोटबंदी, जीएसटी, डिजिटल इंडिया,स्वच्छता अभियान, शौचालयों का निर्माण, मेक इन इंडिया जैसे उसके सभी फैसले उचित दिशा में लिए गए थे जिनके नतीजे उम्मीद के अनुरूप नहीं आए। सरकार को इस नाकामी की पड़ताल करनी चाहिए। कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार के ये कार्यक्रम भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन की भेंट चढ़ गए। बहरहाल नोटबंदी तक जो आम आदमी परेशानियों का सामना करने के बावजूद सरकार के इस कदम में उनके साथ था, जीएसटी के आते आते उसके सब्र का बांध टूटने लगा और मध्यम वर्ग खास तौर पर व्यापारी वर्ग का इस सरकार से मोह भंग होने लगा।
उसे लगने लगा कि अपने प्रधानमंत्री द्वारा बनाए गए जिन कानूनों का पालन करने के लिए वे हर प्रकार की तकलीफों का सामना करने को तैयार हैं, उन कानूनों की धज्जियां वे ही लोग उड़ा रहे हैं जिन पर उन्हें लागू करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। दरअसल, प्रधानमंत्री मोदी ने इस देश के नौकरशाहों को समझने में भूल कर दी। उन्होंने शायद भ्रष्टाचार की जड़ों को पहचानने में भूल कर दी। देश तो सरकार और उसके फैसलों में मोदी के साथ था, लेकिन वे लोग जिन पर उनके फैसलों को अमल में लाने की जिम्मेदारी थी, जिन पर बदलाव की जिम्मेदारी थी, वे खुद तो नहीं बदले, लेकिन अपने कारनामों से सरकार के फैसलों के परिणाम जरूर बदल दिए। बैंक कर्मचारियों की मिलीभगत से कैसे सारा काला धन सफेद हो गया, उसे पूरा देश जानता है। शौचालय के नाम फर्जीवाड़ा हुआ है।
कई मामले ऐसे मिले जिनमें सरकार से पैसे तो लिए गए लेकिन शौचालय का निर्माण नहीं कराया गया। इसमें अधिकारियों की मिलीभगत की आशंका है। इसकी जांच होनी चाहिए। पहले स्वच्छता अभियान और अब स्मार्ट सिटी के नाम पर जो गोरखधंधा हो रहा है क्या वह इस देश की आम जनता कर रही है? कुल मिलाकर इन तीन सालों में काम उन्हीं मोर्चो पर हुआ जिन पर प्रधानमंत्री कार्यालय का सीधा दखल था और जिन मोर्चो की जिम्मेदारी दूसरे हाथों में सौंप दी गई वह सालों पुरानी परंपरानुसार फाइलों में दफन कर दी गई। 2014 में जिस भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सवार होकर मोदी जीतकर आए थे, आज वह ही मुद्दा उनके रास्ते में रुकावट बनकर खड़ा है फर्क है तो इतना कि पहले सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते थे, लेकिन आज सरकार खुद भले ही पाक साफ है पर अपने नौकरशाहों के कारण वह कटघरे में है।