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इस तरह लाइलाज हो जाएगी टीबी; भारत ही नहीं, दुनिया होगी परेशान

दवा प्रतिरोधी टीबी वह होती है, जिस पर उपलब्ध दवाओं का प्रभाव नहीं पड़ता। ऐसे मरीजों का इलाज ज्यादा मुश्किल होता है।

By Digpal SinghEdited By: Published: Wed, 14 Jun 2017 12:28 PM (IST)Updated: Wed, 14 Jun 2017 12:34 PM (IST)
इस तरह लाइलाज हो जाएगी टीबी; भारत ही नहीं, दुनिया होगी परेशान

नई दिल्ली, [स्पेशल डेस्क]। टीबी पहले ही बेहद खतरनाक बीमारी है, हालांकि शुरुआती कुछ चरणों में इसका इलाज संभव है। लेकिन 2040 तक भारत में दवा प्रतिरोधी टीबी की स्थिति भयावह होने की आशंका तमाम जानकार जता रहे हैं। अगले दो दशक में रूस, फिलीपींस और दक्षिण अफ्रीका में भी ऐसे ही हालात की आशंका जताई गई है।

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दवा प्रतिरोधी टीबी को लेकर कराए गए एक अध्ययन के मुताबिक, 2040 तक रूस में टीबी के एक तिहाई मामले दवा प्रतिरोधी के सामने आएंगे। इसकी तुलना में भारत और फिलीपींस में हर 10 में एक और दक्षिण अफ्रीका में हर 20 में एक टीबी का मरीज दवा प्रतिरोधी टीबी से पीड़ित होगा।

अध्ययन के मुताबिक इलाज के बेहतर साधन से इस बीमारी से लड़ने की क्षमता बढ़ी है, लेकिन वर्तमान तरीके इस भयावह स्थिति को टालने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। इस संबंध में और अधिक शोध की जरूरत है। समय से टीबी का पता चलना और इलाज बीच में छोड़ देने वाले मरीजों की संख्या कम करना बेहद जरूरी कदम हैं।

क्या है दवा प्रतिरोधी टीबी

दवा प्रतिरोधी टीबी वह होती है, जिस पर उपलब्ध दवाओं का प्रभाव नहीं पड़ता। ऐसे मरीजों का इलाज ज्यादा मुश्किल होता है। एंटीबायोटिक दवाओं के गलत इस्तेमाल और टीबी का इलाज बीच में छोड़ने के कारण यह स्थिति पैदा होती है। सन्‌ 2000 में रूस में 24.8 फीसद, भारत में 7.9 फीसद, फिलीपींस में 6 फीसद और दक्षिण अफ्रीका में 2.5 फीसद मामले दवा प्रतिरोधी टीबी से जुड़े थे।

अमेरिका में सेंटर्स फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के आदित्य शर्मा का कहना है कि किसी एक दिशा में प्रयास पर्याप्त नहीं होंगे। इस चुनौती से निपटने के लिए समग्र प्रयास की जरूरत होगी।

दवा-प्रतिरोधी टीबी के नए मामले मुंबई में भी सामने आ चुके हैं और चिंताजनक बात यह है कि यह मामले 5 साल पहले सामने चुके हैं। भारत जैसी अत्यधिक आबादी वाले और बंद गंली-कूचों में रहने वाली आबादी को हमेशा टीबी का खतरा रहता है। साल 2012 में ही दवा प्रतिरोधक टीबी के सामने आने से साबित होता है कि इस रोग से लड़ने में सरकार की तैयारी व मशीनरी कितनी दुरुस्त है। उस समय माहिम के हिंदुजा हॉस्पिटल ने 12 मरीजों के नमूनों में पूर्ण रूप से दवा प्रतिरोधी टीबी (टोटली ड्रग रेजिस्टेंट) का पता लगा था।

क्या है टीबी

टीबी यानी ट्यूबरकुलासिस को कई नामों से जाना जाता है जैसे इस क्षय रोग, तपेदिक, राजयक्ष्मा, दण्डाणु इत्यादि नामों से भी जाना जाता है। टीबी एक संक्रामक बीमारी है और इससे ग्रसित व्यक्ति में शारीरिक कमजोरी आ जाती है और इसके साथ ही उसे कई गंभीर बीमारियां होने का भी खतरा रहता है। टीबी सिर्फ फेफड़ों का ही रोग नहीं है, बल्कि शरीर के अन्य हिस्सों को भी यह प्रभावित करता है।

टीबी के प्रकार

आमतौर पर टीबी तीन तरह का होता है। यह पूरे शरीर को संक्रमित करता है। टी.बी के तीन प्रकार हैं- फुफ्सीय टीबी, पेट का टीबी और हड्डी का टीबी। तीनों ही प्रकार के टीबी के कारण, पहचान और लक्षण भिन्न होते हैं। यही नहीं, तीनों प्रकार के टीबी का इलाज भी अलग-अलग तरह से किया जाता है।

अलग-अलग टीबी को कैसे पहचानें

फुफ्सीय टीबी- इस प्रकार के टीबी को पहचान पाना काफी मुश्किल होता है। यह अंदर ही अंदर बढ़ता रहता है और जब स्थिति बहुत ज्यादा गंभीर हो जाती है, तभी फुफ्सीय टीबी के लक्षण उभरते हैं। फुफ्सीय टीबी हर उम्र के व्यक्ति को हो सकती है, लेकिन चिंताजनक बात यह है कि हर व्यक्ति में इसके लक्षण अलग-अलग होते हैं। सांस तेज चलना, सिरदर्द होना या नाड़ी तेज चलना आदि कुछ इसके लक्षण हैं।

पेट की टीबी- पेट में होने वाली टीबी की पहचान तो और भी मुश्किल होती है, क्योंकि पेट की टीबी पेट के अंदर ही तकलीफ देना शुरू करती है और जब तक इसके बारे में पता चलता है, तब तक पेट में गांठें पड़ चुकी होती हैं। दरअसल पेट की टीबी के दौरान मरीज को सामान्य रूप से होने वाली पेट की समस्याएं ही होती हैं जैसे बार-बार दस्त लगना, पेट में दर्द होना आदि।

हड्डी की टीबी- हड्डी में होने वाली टीबी की पहचान आसानी से की जा सकती हैं, क्योंकि हड्डी में होने वाली टीबी के कारण हडि्डयों में घाव पड़ जाते हैं जोकि इलाज के बाद भी आराम से ठीक नहीं होते। शरीर में जगह-जगह फोड़े-फुंसियां होना भी हड्डी की टीबी होने के लक्षण हैं। इसमें हड्डियां बहुत कमजोर हो जाती हैं और मांसपेशियों में भी बहुत प्रभाव पड़ता है।

बचाव ही इलाज है...

टीबी से बचने के लिए अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता (इम्यूनिटी) को बढ़िया रखें। न्यूट्रिशन से भरपूर खाना खासकर प्रोटीन डाइट (सोयाबीन, दालें, मछली, अंडा, पनीर आदि) भरपूर मात्रा में लें। अगर आपकी इम्युनिटी कमजोर है तो टीबी के बैक्टीरिया के एक्टिव होने की आशंका ज्यादा रहती है। असल में कई बार टीबी का बैक्टीरिया शरीर में तो होता है, लेकिन अच्छी रोग प्रतिरोधक क्षमता के कारण यह एक्टिव नहीं हो पाता और टीबी नहीं होती।

टीबी से बचना चाहते हैं तो, ज्यादा भीड़-भाड़ वाली जगहों पर जाने से भी बचना चाहिए। कम रोशनी वाली और गंदी जगहों पर नहीं रहना चाहिए और वहां जाने से भी परहेज करना चाहिए। हो सके तो टीबी के मरीजों के पास न जाएं, जाना जरूरी ही हो तो कम-से-कम एक मीटर की दूरी बनाकर रखें। टीबी के मरीज को हवादार और अच्छी रोशनी वाले कमरे में रहने की सलाह दी जाती है। कमरे में ताजा हवा आने दें और पंखा चलाकर खिड़कियां खोल दें, ताकि बैक्टीरिया बाहर निकल सके।

जिन लोगों को एसी में रहने की आदत है, वे मरीज स्प्लिट एसी से परहेज करें; क्योंकि स्प्लिट एसी में बंद खिड़की, दरवाजों के कारण बैक्टीरिया अंदर ही घूमता रहेगा और दूसरों को भी बीमारी से ग्रसित कर देगा। टीबी के मरीज को हर समय मास्क पहनकर रखना चाहिए। मास्क उपलब्ध न होने पर हर बार खांसने या छींकने से पहले मुंह को नैपकिन से अच्छी तरह से ढक लेना चाहिए। बाद में इस नैपकिन को कवरवाले डस्टबिन में फेंक दें। मरीज को खासतौर पर ध्यान देना चाहिए कि वह इधर-उधर थूके नहीं।

दोबारा क्यों होती है टीबी?

रिसर्च में पता चला है कि टीबी का जीवाणु इलाज के दौरान बचाव के लिए अस्थि मज्जा (बोन मैरो) की मूल कोशिकाओं में छिप जाते हैं और बाद में फिर से प्रकट हो जाते हैं। यही वजह है कि अच्छे से इलाज के बावजूद टीबी दोबारा से पनप जाती है। दुनियाभर में टीबी से होने वाली मौतों की संख्या डराती है। हर साल लगभग 19 लाख लोगों की मौत टीबी की वजह से होती है। टीबी से लड़ने में DOTS एक प्रमुख हथियार है।

DOTS क्या है...

डॉट्स (DOTS) यानी 'डायरेक्टली ऑब्जर्व्ड ट्रीटमेंट शॉर्ट कोर्स' टीबी के इलाज का एक अभियान है। इसमें टीबी की मुफ्त जांच से लेकर मुफ्त इलाज तक शामिल है। इस अभियान में स्वास्थ्य कार्यकर्ता मरीज को अपने सामने दवा देते हैं, ताकि मरीज दवा लेना न भूले। यही नहीं हेल्थ वर्कर मरीज और उसके परिवार की काउंसलिंग भी करते हैं। इलाज के बाद भी मरीज पर निगाह रखी जाती है। डॉट्स प्रणाली टीबी से लड़ने की एक कारगर तकनीक है और इसमें 95 फीसदी तक कामयाब इलाज होता है।


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