एक लाख महिलाओं की निशुल्क डिलीवरी करवाई, ऐसी थीं भक्ति यादव
गोरखपुर जैसी कोई घटना न हो, इसके लिए चिकित्सा जगत के लोगों को इंदौर की भक्ति यादव से सीखना चाहिए।
विकेश कुमार बडोला
उत्तर प्रदेश स्थित बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज में ऑक्सीजन की कमी की वजह से हुई करीब पांच दर्जन मौतों ने देश को झकझोर कर रख दिया। मासूमों की मौतों के बाद सरकार की तरफ से आने वाले बयान से साफ हो गया है कि सत्ता में बैठे लोग कितने असंवेदनशील हैं। मौत के कारणों के बारे में जो भी खबरें अब तक आई हैं, उनके अनुसार मौतें अस्पताल में ऑक्सीजन की आपूर्ति रुकने, डॉक्टरों की लापरवाही, शासन-प्रशासन की अकर्मण्यता और इन सबसे ऊपर राज्य सरकार की असंवेदनशील रवैये के चलते हुई हैं।
इस त्रासद स्थिति में सत्ता प्रतिष्ठान के शीर्ष से लेकर निचले स्तर तक सभी को समाज और लोगों के साथ मिल बैठकर ऐसा वातावरण बनाने की जरूरत है, ताकि भविष्य में बच्चों की इस तरह मौतें न हो पाएं। बच्चों की इन मौतों का वास्तविक दुख और वेदना शासन व्यवस्था से लेकर मीडिया जगत तक कितने लोगों को महसूस हुई होगी इसकी तो कोई गणना संभव नहीं, लेकिन इन मौतों पर सरकार की तरफ से आने वाले बयान बताते हैं कि सत्ता में बैठे लोग बहुत निष्ठुर हैं। मगर साथ ही आगे गोरखपुर जैसी कोई घटना न हो, इसके लिए चिकित्सा जगत के लोगों को इंदौर की भक्ति यादव से सीखना चाहिए।
उन्हें सीखना चाहिए कि कैसे निस्वार्थ भाव से डॉ. भक्ति यादव ने अपने पेशे को जीया। मध्य प्रदेश स्थित इंदौर की डॉ. भक्ति यादव की चौदह अगस्त को 92 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई। डॉक्टर भक्ति ने अपने जीवनकाल में ‘यथा नाम तथा काम’ की आदर्श उक्ति को पूरी तरह चरितार्थ किया। उन्होंने अपने चिकित्सकीय सेवाकाल में एक लाख निर्धन महिलाओं की नि:शुल्क प्रसूति की थी। उन्होंने ऐसी स्त्रियों से किसी प्रकार का कोई शुल्क कभी नहीं लिया।
डॉक्टर भक्ति यादव भारत की समाजसेवी चिकित्सक थीं। वे एक स्त्री रोग विशेषज्ञ थीं। वे गरीब स्त्रियों की नि:शुल्क चिकित्सा करती थीं। 1952 में भक्ति यादव इंदौर की पहली महिला थीं, जो एमबीबीएस डॉक्टर बनीं। उनका जन्म 3 अप्रैल 1926 को उज्जैन के निकट स्थित महिदपुर में हुआ था। वे मूलत: महाराष्ट्र के एक प्रतिष्ठित परिवार से थीं। जिस समय भारतीय समाज में लड़कियों को पढ़ाना अनुचित समझा जाता था, तब भक्ति यादव ने शिक्षा हासिल की। उनके पिता ने उनकी पढ़ने की इच्छा का सम्मान करते हुए उन्हें निकटवर्ती गरोठ कस्बे में पढ़ाई के लिए भेज दिया। वहां से उन्होंने सातवीं कक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद उनके पिता इंदौर आ गए। भक्ति की पढ़ाई के प्रति अटूट लगन को देखते हुए पिता ने उन्हें अहिल्या आश्रम स्कूल में प्रवेश दिलवा दिया। उस समय इंदौर में वह एकमात्र विद्यालय था, जो बालिकाओं के लिए था और जहां छात्रवास की सुविधा भी थी। वहां से 11वीं कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद भक्ति ने 1948 में इंदौर के होल्कर साइंस कॉलेज में बीएससी प्रथम वर्ष में प्रवेश में लिया। वे बीएससी प्रथम वर्ष में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुईं। उस समय शहर के महात्मा गांधी मेमोरियल मेडिकल कॉलेज (एमजीएम) में ही एमबीबीएस का पाठ्यक्रम चल रहा था और उन्हें 11वीं कक्षा के अच्छे परिणाम के आधार पर उसमें प्रवेश मिल गया।
उस समय उस कॉलेज में एमबीबीएस के लिए चयनित कुल 40 छात्रों में से 39 लड़के थे और भक्ति ही अकेली लड़की थीं। वह एजीएम कॉलेज की एमबीबीएस के पहले बैच की पहली महिला छात्र थीं। वे मध्य भारत की भी पहली एमबीबीएस डॉक्टर थीं। सन् 1952 में भक्ति की तपस्या फलीभूत हुई और वे एमबीबीएस डॉक्टर बन गईं। उन्होंने एमजीएम मेडिकल कॉलेज से ही एमएस किया। 1957 में उन्होंने अपने साथ पढ़ने वाले चंद्र सिंह यादव से विवाह कर लिया। उनके पति भी जीवनभर रोगियों की सेवा में तन-मन-धन से समर्पित रहे। स्थानीय लोगों में डॉक्टर भक्ति का नाम काफी प्रसिद्ध था। वे संपन्न परिवार के रोगियों से भी नाममात्र का ही शुल्क लेती थीं और गरीब मरीजों का तो उन्होंने जीवनभर नि:शुल्क इलाज किया।
तब से डॉक्टर भक्ति चिकित्सा क्षेत्र में परोपकार में लीन रहीं। 2014 में 89 वर्ष की अवस्था में उनके पति डॉ. चंद्र सिंह यादव का निधन हो गया। डॉ. भक्ति को भी 2011 में अस्टियोपोरोसिस नामक खतरनाक बीमारी हो गई, जिस कारण उनका वजन लगातार घटते हुए 28 किलो रह गया। डॉक्टर भक्ति यादव को उनकी सेवाओं के लिए सात वर्ष पूर्व डॉ. मुखर्जी सम्मान प्रदान किया गया था। वर्ष 2017 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया। अधिक आयु होने के कारण वे पुरस्कार वितरण समारोह में सम्मिलित न हो सकीं। लिहाजा नियमानुसार इंदौर के कलेक्टर ने उन्हें उनके घर जाकर पुरस्कार प्रदान किया।
सही मायनों में चिकित्सा कर्म क्या होता है यह डॉ. भक्ति यादव ने अपने समर्पण से दिखा दिया। उन्होंने सोमवार 14 अगस्त 2017 को इंदौर स्थित अपने घर पर अंतिम सांस ली और हम सभी को आश्चर्य मिश्रित विषाद के साथ छोड़ गईं।
उपरोक्त दोनों घटनाओं के संदर्भ में यदि हम गोरखपुर मेडिकल कॉलेज के डॉक्टरों की तुलना डॉक्टर भक्ति यादव से करें तो नैतिकता के अनुरूप उनका कार्य मानवता के महान मानदंड पर कितना अनुकरणीय प्रतीत होता है? अपने चिकित्सकीय जीवनकाल में एक लाख गरीब स्त्रियों की नि:शुल्क प्रसूति का कार्य उन्हें महानता की सर्वोच्च श्रेणी में खड़ा करता है। तो क्या इस सब के बाद उनके बारे में मध्य प्रदेश राज्य से बाहर पूरे भारत और विदेशों में निरंतर सकारात्मक चर्चा नहीं होनी चाहिए।
हमारे देश-समाज में जीवन हानि होने पर उत्तरदायी व दोषी लोगों पर ही नकारात्मक, नैराश्यप्रद, अनावश्यक व आरोप-प्रत्यारोप पर आधारित विवाद ही क्यों होता है। डॉक्टर भक्ति यादव सरीखे जीवन बचाने वालों, जीवन संवारने वालों और जीवन के लिए आशा व विश्वास का वाहक बनने वाले लोगों पर उपयोगी संवाद क्यों नहीं होता। ऐसे संवाद में मीडिया जगत की गहन पड़ताल व हिस्सेदारी क्यों नहीं होती। यह कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जिनसे हमें स्वयं के बारे में यह कड़वा सत्य जानने का अवसर मिलेगा कि अभी हमें मानसिक रूप से विकसित होने में बहुत समय लगेगा।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)