Move to Jagran APP

विश्वस्तरीय शिक्षा देने और मैकाले की शिक्षा के सिद्धांतों से पार पाने की चुनौती

देश के विश्वविद्यालयों को विश्वस्तरीय बनाने और बेहतर नतीजे हासिल करने के लिए सबसे पहले हमें अपनी राष्ट्रीय आय का छह प्रतिशत हिस्सा शिक्षा पर खर्च करना होगा।

By Digpal SinghEdited By: Published: Sat, 21 Oct 2017 09:14 AM (IST)Updated: Sat, 21 Oct 2017 09:18 AM (IST)
विश्वस्तरीय शिक्षा देने और मैकाले की शिक्षा के सिद्धांतों से पार पाने की चुनौती

अरविंद जयतिलक। पिछले दिनों पटना विश्वविद्यालय के शताब्दी समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह एलान स्वागत योग्य है कि उनकी सरकार देश में 20 विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय बनाने को कृतसंकल्प है। इस पहल के तहत 10 सरकारी और 10 निजी विश्वविद्यालयों को योग्यता के आधार पर चुना जाएगा और उनके विश्वस्तरीय विकास के लिए दस हजार करोड़ रुपये अनुदान के तौर पर दिए जाएंगे। 

loksabha election banner

प्रधानमंत्री ने बेहिचक स्वीकार किया कि विश्व के सर्वश्रेष्ठ 500 विश्वविद्यालयों में भारत के एक भी विश्वविद्यालय शुमार नहीं हैं। अच्छी बात यह है कि प्रधानमंत्री ने आइआइएम संस्थानों की तरह इन विश्वविद्यालयों को सरकारी बंधनों से मुक्त करने की प्रतिबद्धता जाहिर की है जो कि विश्वविद्यालयों को विश्वस्तरीय स्वरूप देने के लिए प्रथम शर्त है।

यह किसी से छिपा नहीं है कि आजादी के 70 साल बाद भी भारत की शिक्षा प्रणाली 1835 में मैकाले द्वारा थोपे गए सिद्धांतों और सरकारी बंधनों से मुक्त नहीं हो सकी है। दूसरी ओर रही-सही कसर विश्वविद्यालयों में शैक्षिक अराजकता ने पूरी कर दी है। विडंबना यह भी है कि जहां विश्वविद्यालयों में योग्य शिक्षकों की नियुक्ति होनी चाहिए वहां भाई-भतीजावाद का खेल जोरों पर है। आए दिन विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति को लेकर विवाद खड़े हो रहे हैं। इससे पठन-पाठन का स्तर गिर रहा है। सच तो यह है कि भारत के विश्वविद्यालय महज डिग्री हासिल करने का केंद्र भर बन कर रह गए हैं, जबकि विश्वविद्यालयों एवं उच्च शिक्षा में सुधार के लिए ढेरों आयोग और समितियां गठित की जा चुकी हैं और इन समितियों द्वारा सरकार को सार्थक सुझाव और विचार भी सौंपें जा चुके हैं, लेकिन समझना कठिन है कि इन सुझावों का अनुपालन क्यों नहीं हो रहा है?

आज विश्वविद्यालयों को विश्वस्तरीय बनाने के लिए ठोस पहल की जरूरत है और इसके लिए सबसे पहले शिक्षा में सुधार की रफ्तार बढ़ानी होगी। इसलिए कि पिछले दिनों उद्योग संगठन एसोचैम के एक अध्ययन पत्र में कहा गया कि भारत में शिक्षा सुधार की रफ्तार बेहद धीमी है और यह इसी तरह बनी रही तो भारत को विकसित देशों की तरह अपनी शिक्षा के स्तर को शीर्ष पर ले जाने में 126 साल का समय लगेगा। एसोचैम ने अपने सुझाव में कहा कि शिक्षा प्रणाली में बड़े बदलाव की जरूरत है और शिक्षा बजट को जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद का छह फीसद किया जाना आवश्यक है। 

अगर बजट बढ़ता है तो भारत दुनिया में प्रतिभावान छात्रों की आपूर्ति का सबसे बड़ा स्त्रोत होगा। उच्च शिक्षा में दाखिले के मामले में भारत अभी भी चीन, थाईलैंड और मलेशिया से पीछे है। मौजूदा समय में भारत में यह आंकड़ा 20 प्रतिशत के आसपास है, जबकि चीन में यह 26 प्रतिशत, थाईलैंड में 48 प्रतिशत और मलेशिया में 40 प्रतिशत है। इससे साफ जाहिर होता है कि भारत में उच्च शिक्षा में सुधार की रफ्तार बेहद धीमी है। दाखिले के अलावा शोध कार्यों में भी भारत की स्थिति संतोषजनक नहीं है।

गौर करें तो दुनिया के विकसित देशों में प्रति 10 लाख में 4500 छात्र शोध कार्य में संलग्न हैं, जबकि भारत में यह आंकड़ा 200 के आसपास है। यह स्थिति देश की उच्च शिक्षा के लिए गंभीर चुनौती है। यह स्वाभाविक है कि जब उच्च शिक्षा में नामांकन का दर कम होगा तो शोध कार्य करने वाले भी कम ही होंगे। शिक्षाविदों का मानना है कि अगर भविष्य में भारत को अपने विश्वविद्यालयी स्तर को विश्वस्तरीय बनाना है तो सबसे पहले सकल दाखिला अनुपात का लक्ष्य 30 प्रतिशत हासिल करना होगा। साथ ही शोधकार्य करने वाले छात्रों की संख्या भी बढ़ानी होगी। यही नहीं आने वाले वर्षों में इंफ्रास्ट्रक्चर मजबूत करने के साथ ही 800 विश्वविद्यालयों और 35000 कॉलेजों की स्थापना करनी होगी। मौजूदा समय में देश में तकरीबन 500 के आसपास विश्वविद्यालय और 22000 कॉलेज हैं। मौजूदा समय में विश्वविद्यालय और उच्च शिक्षण संस्थानों के समक्ष जो सबसे बड़ी समस्या है, वह अध्यापकों की कमी और जरूरी संसाधनों का अभाव है।

एक आंकड़े के मुताबिक हर विश्वविद्यालय में तकरीबन 45 प्रतिशत से 52 प्रतिशत शिक्षकों के पद रिक्त हैं। इनमें 44.6 प्रतिशत प्रोफेसरों के पद और 51 प्रतिशत रीडरों के पद रिक्त हैं। इसी तरह 52 प्रतिशत पद लेक्चरर के रिक्त हैं। फिलहाल भारत तकरीबन 14 लाख शिक्षकों की कमी से जूझ रहा है। साथ ही उपलब्ध शिक्षकों में भी तकरीबन 20 प्रतिशत शिक्षक योग्यता मानकों के अनुरूप नहीं हैं। विडंबना यह कि शिक्षकों की कमी के बीच प्रत्येक वर्ष विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में छात्रों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। उच्च शिक्षा के संदर्भ में भारत में शिक्षा पर अत्यंत कम खर्च किया जा रहा है। आज विकसित देशों में उच्च शिक्षा पर जहां कुल बजट का छह से सात प्रतिशत खर्च किया जाता है वहीं भारत आज भी अपने कुल बजट का मात्र 0.42 प्रतिशत ही धन इस पर खर्च करता है।

समझना कठिन है कि भला इस सीमित बजट के सहारे विश्वविद्यालयों को विश्वस्तरीय बनाने के लक्ष्य को कैसे हासिल किया जा सकता है? विश्वविद्यालयों को विश्वस्तरीय बनाने और बेहतर नतीजे हासिल करने के लिए सबसे पहले इसे अपनी जीडीपी का छह प्रतिशत खर्च करना होगा। विश्वविद्यालयी स्तर की शिक्षा में सुधार के लिए अनेकों समितियों ने अपने सुझाव दिए हैं, लेकिन इन सुझावों पर गौर फरमाने के बजाय उन्हें ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। नतीजा सामने है। आज जरूरत उन समितियों के सुझावों पर गौर फरमाने की भी है। इसके साथ ही केंद्र व राज्य सरकारों को कुछ कड़े फैसले लेने होंगे। मसलन शिक्षा के व्यवसायीकरण को रोकना होगा। बढ़ती हुई छात्र संख्या को दृष्टिगत रख विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों की संख्या बढ़ाने के साथ गुणवत्तापरक शिक्षा का माहौल निर्मित करना होगा। प्रशिक्षित अध्यापकों की नियुक्ति के साथ-साथ संस्थानों को आवश्यक संसाधन मुहैया कराने होंगे। इसके अलावा उच्च शिक्षा प्राप्त करने के इच्छुक छात्रों को कम ब्याज दर पर आवश्यक ऋण भी उपलब्ध कराना होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.