जगजाहिर है भारतीय रेल की बदहाली, आखिर कब उबरेगी
रेलवे की समस्या बेहद गंभीर है। इसका संचालन सरकारी विभाग की तरह नहीं किया जा सकता। पिछला वित्त वर्ष रेलवे के खराब परिचालन अनुपात का प्रमाण है।
ज्ञानेंद्र रावत
देश में सैकड़ों दावों और घोषणाओं के बावजूद भारतीय रेल की बदहाली जगजाहिर है। रेलमंत्री सुरेश प्रभु भारतीय रेल को कितना भी आधुनिक बनाने का दावा करें, कितने भी प्रयास करें, लेकिन रेल विभाग के अधिकारी और कर्मचारी अपने पुराने र्ढे को बदलने को कतई तैयार नहीं दिख रहे हैं। ऐसे हालातों में भारतीय रेल कुप्रबंधन और लापरवाही के दौर से क्या उबर पाएगी? मौजूदा हालात इसकी गवाही नहीं देते। देश में रेल हादसे तो अब आए-दिन की बात हो गए हैं।
सरकार इन्हें रोक पाने में नाकाम है। गत 19 अगस्त को पुरी से हरिद्वार जा रही कलिंग-उत्कल एक्सप्रेस का मुजफ्फनगर से 24 किलोमीटर पहले खतौली में पटरी से उतरने के चलते हुआ हादसा यही साबित करता है। इस हादसे में ट्रेन के 14 डिब्बे पटरी से उतर गए। ट्रेन की दो बोगियां एक दूसरे पर चढ़ गईं। यात्रियों को बमुश्किल फंसी क्षतिग्रस्त बोगियों से निकाला जा सका। हादसे में 55 से अधिक लोगों के मरने और सवा सौ के करीब घायल होने की खबर है। यह हादसा भी रेलवे की बड़ी चूक का नतीजा है। आमतौर पर जहां मरम्मत कार्य चल रहा होता है, वहां ट्रेनें प्रतिबंधित रफ्तार पर चलाई जाती हैं। जबकि हादसे के समय ट्रेन की रफ्तार 106 किमी प्रति घंटा थी।
सबसे बड़ी बात यह कि जब पटरी टूटी थी तो उस पर से ट्रेन गुजारने की इजाजत ही क्यों दी गई? इस हादसे में ट्रेन की रफ्तार इतनी तेज थी कि पास की कॉलोनी के कुछ मकान और इंटर कॉलेज का कुछ हिस्सा चपेट में आ गए। देखें तो बीते सालों में रेलवे ने कई बार रेल टिकटों की कीमत बढ़ाई है, लेकिन सुविधाओं और सुरक्षा के मामले में इसकी स्थिति पहले से भी ज्यादा फिसड्डी हुई है। 1देखा जाय तो बीते 13 सालों में हुए रेल हादसों में तकरीबन 85 फीसद रेल हादसे केवल पटरी से उतरने के कारण हुए हैं। बावजूद इसके रेलवे की आंखें नहीं खुल रही हैं।
मोदी सरकार के बीते तीन सालों के कार्यकाल में ही 361 हादसे पटरी से उतरने की वजह से हुए हैं। इनमें 185 हादसे कर्मचारियों की लापरवाही से हुए हैं। इसका प्रमुख कारण पटरियों के रखरखाव में लापरवाही है। असल में 85 फीसद हादसे बीमार पटरियों के कारण होते हैं। कुछ माह पूर्व महोबा में हुए रेल हादसे में ट्रैक निगरानी, रखरखाव और मरम्मत की पोल खुल ही चुकी है। रेलवे ने प्रथम दृष्टया माना हादसे की जगह पटरी टूटी हुई थी। यह बात सामने आई कि रेल नियमावली का कर्मचारियों द्वारा ठीक तरह से पालन नहीं किया जा रहा है।
नतीजन हाल के सालों में रेल हादसों में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है। इसके पीछे विशेषज्ञ यातायात में बेइंतहा बढ़ोतरी, बुनियादी ढांचे में निवेश की कमी और रेलखंडों पर पड़ने वाला अतिरिक्त बोझ प्रमुख कारण मानते हैं। कई रेलखंडों में तो पटरियों की क्षमता से 220 फीसद तक ज्यादा टेनों को चलाया जा रहा है। असल में भारतीय रेलवे के कुल 1,219 रेलखंडों में से 40 फीसद से ज्यादा पर टेनों का जरूरत से ज्यादा बोझ है। 90 फीसद से ज्यादा यातायात तकनीकी रूप से उचित नहीं हैं। कैग ने अपनी रिपोर्ट में ओवरलोडेड मालगाड़ियों के परिचालन पर आपत्ति जाहिर की थी।
उसने ओवरलोडेड मालगाड़ियों पर प्रतिबंध लगाने का सुझाव दिया था, लेकिन कमाई के चक्कर में रेलवे कैग की अनुशंसा की अनदेखी कर रहा है। रेल नियमावली के मुताबिक मौजूदा ट्रैक पर 4800-5000 टन भार की मालगाड़ियां चलाई जा सकती हैं। जबकि पिछले दशक से इन पर 5200 से 5500 टन की ओवरलोडेड मालगाड़ियां चलाई जा रही हैं। इससे ट्रैक पर लगातार बोझ बढ़ रहा है। यातायात के अत्यधिक बढ़ते दबाव से टेनें लेट हो रही हैं। रेलवे की बदहाली का पता इससे लगता है कि बीते साल 25 टेनें औसतन हर दिन रद हुईं। उसके बाद भी किसी को चिंता नहीं है। 1उच्च घनत्व वाले रेलखंडों की बदहाली भी जगजाहिर है।
ऐसे 247 रेलखंडों में से लगभग 65 फीसद अपनी कुल लाइन क्षमता से 100 फीसद से ज्यादा बोझ ढोने को मजबूर हैं। रेलवे की स्थाई समिति भी अपनी सुरक्षा रिपोर्ट में इस तथ्य को रेखांकित कर चुकी है कि 1950 से 2016 के बीच दैनिक रेल यात्रियों में 1,344 फीसद, माल ढुलाई में 1,642 फीसद की बढ़ोतरी हुई जबकि रेलवे के ट्रैक का विस्तार मात्र 23 फीसद ही हुआ है। इसी प्रकार 2000 से 2016 के बीच दैनिक यात्री टेनों की तादाद में भी अनुमानित बढ़ोतरी 23 फीसद हुई। अक्सर किसी भी हादसे की स्थिति में ड्राइवर या किसी अन्य कर्मचारी को दोषी ठहरा दिया जाता है, जबकि हकीकत इसके विपरीत होती है।
वास्तव में इसके लिए पूरी तरह रेलवे की नीतियां दोषी हैं। 1986 में रेल के ड्राइवर को 75 हफ्ते की टेनिंग दी जाती थी जिसे अब सीमित कर मात्र 16 हफ्ते की कर दी गई है। हालांकि आज 100 फीसद कंप्यूटरीकृत इंजन आ गए हैं। इसके अलावा समूची नौकरी के दौरान चालक को सिमुलेटर पर एक या दो बार 45 मिनट के लिए प्रशिक्षण दिया जाता है। यही नहीं सहायक चालक को महज 2000 किलोमीटर ट्रेन चलने के बाद ड्राइविंग सीट पर बैठा दिया जाता है। यह क्या न्यायसंगत है? रेलवे में हादसों के बाद जांच और फिर कार्रवाई के दिशा-निर्देशों के अलावा कुछ नहीं होता।
अगर वास्तव में आज तक कुछ हुआ होता तो ये दुर्घटनाएं नहीं होतीं। यह हालात की गंभीरता का सबूत है। इसके मद्देनजर पूर्व वित मंत्री पी. चिदंबरम ने कहा है कि ऐसा लगता है कि रेलवे सुधरना नहीं चाहता। भारतीय रेलवे की समस्या बहुत गंभीर है। इसका संचालन सरकारी विभाग की तरह नहीं किया जा सकता। पिछला वित्त वर्ष रेलवे के खराब परिचालन अनुपात का ज्वलंत प्रमाण है। भले ही रेल मंत्री यह दावा कर रहे हैं कि रेलवे टेन हादसों को शून्य स्तर पर लाने के लिए कई मोर्चो पर एकसाथ काम कर रहा है। इसमें पुरानी पटरियों को बदलने के लिए 10,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया जाना प्रमुख है।
उनका यह भी दावा है कि रेलवे को विश्वस्तरीय बनाने की दिशा में हरसंभव प्रयास किए जा रहे हैं। इससे रेलवे का सात दशक पुराना ढांचा बदला जाएगा और रेलवे में प्रदर्शन के हिसाब से पदोन्नति होगी। यह जब हो पाएगा तब की बात है, लेकिन लचर ट्रैक रखरखाव, निगरानी, मरम्मत व जांच में लापरवाही के चलते 6,400 किलोमीटर के उच्च प्राथमिकता वाले नौ कॉरिडोरों में फ्रांस के सहयोग से 200 किलोमीटर प्रति घंटा की गति से चलने वाली सेमी हाईस्पीड टेनों और उससे भी अधिक गति वाली बुलेट तथा तेजस ट्रेनों और उनके यात्रियों का भविष्य क्या होगा, यह सहज ही समझा जा सकता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)