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'जल, जंगल और जमीन से आज भी जुड़ा हुआ है आदिवासी आंदोलन'

भारतीय इतिहासकारों ने ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ आदिवासी आंदोलनों को गांधी-कांग्रेस के नेतृत्व वाला ‘राष्ट्रवादी आंदोलन’ बताने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।

By Lalit RaiEdited By: Published: Mon, 17 Jul 2017 11:26 AM (IST)Updated: Mon, 17 Jul 2017 05:12 PM (IST)
'जल, जंगल और जमीन से आज भी जुड़ा हुआ है आदिवासी आंदोलन'
'जल, जंगल और जमीन से आज भी जुड़ा हुआ है आदिवासी आंदोलन'

अश्विनी कुमार पंकज

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भारत के आदिवासी समुदाय से महात्मा गांधी का पहला परिचय जून 1917 में हुआ था। जब वह पहली बार चंपारण के किसानों के आंदोलन के संदर्भ में गर्वनर द्वारा रांची बुलाए गए थे। वैसे ही, जैसे जबरन खींचकर पीर मुनीस और राजकुमार शुक्ल उन्हें चंपारण लाए थे। बिहार-उड़ीसा के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर ई.ए. गेट ने गांधी को ‘समन’ भेज कर बुलाया। 4 जून 1917 को गांधी रांची में गवर्नर से मिले। इस मुलाकात के बाद अक्टूबर 1917 तक गांधी लगातार रांची आते रहे।


रांची प्रवास के दौरान गांधी ने चंपारण सत्याग्रह की पूरी रूपरेखा बनाई, किसानों, जमींदारों और सरकार के बीच समझौते आदि संबंधित कार्यो को संपादित किया। इसी रांची प्रवास-विहार के दौरान गांधी की पहली मुलाकात आदिवासियों से हुई। उन्हें रांची के लोगों से बिरसा मुंडा के उलगुलान, 1912 में गठित ‘छोटानागपुर उन्नति समाज’ के सुधारवादी मांगों और टाना भगतों के अनोखे आंदोलन, अहिंसक सत्याग्रह की जानकारी मिली।

गांधी दर्शन के अध्येताओं के अनुसार गांधी ने ‘सविनय अवज्ञा’ का विचार हेनरी डेविड थोरो (1817-1862) से ग्रहण किया था, जो उन्नीसवीं सदी के दासता और युद्ध विरोधी दार्शनिक, कवि, इतिहासकार और एक प्रमुख आंदोलनकारी थे। प्रेमाबहन कंटक को 17 जनवरी 1931 को यरवदा से लिखे अपने पत्र में गांधी ने स्वयं स्वीकार किया है- ‘सामान्य रूप से मेरे समग्र जीवन पर जो लोग असर डाल सके हैं, वे हैं, टॉलस्टॉय, रस्किन, थोरो और रायचंदभाई। थोरो का नाम शायद छोड़ देना ही उचित होगा।’ इस स्वीकारोक्ति में गांधी जहां थोरो का प्रभाव मान रहे हैं, अजीब बात है कि अगली पंक्ति में वह इससे इन्कार भी कर रहे हैं।

जैसे वह ‘सविनय अवज्ञा’ का श्रेय थोरो को देने के लिए तैयार नहीं हुए, उसी तरह से बाद में वे सत्य, अहिंसा आधारित ‘सत्याग्रह’ का श्रेय आदिवासियों को भी नहीं देते। जबकि यह तथ्य है कि ‘सत्याग्रह’ यानी ‘सत्य का आग्रह’ की सीख उन्हें आदिवासियों से ही मिली थी। ‘ग्राम स्वराज’ और ‘खादी’ की पूरी अवधारणा गांधी ने आत्मनिर्भर आदिवासियों से ली थी।

औपनिवेशिक काल से पहले भोजन, वस्त्र और आवास, इन तीनों बुनियादी जरूरतों के लिए आदिवासी किसी पर निर्भर नहीं रहे। यहां तक कि नमक भी वे अपना बनाया ही इस्तेमाल करते थे। परजीवीपन उनके दर्शन में नहीं है। इसलिए कहा जा सकता है कि ‘सत्याग्रह’ और ‘ग्राम स्वराज’ की सीख गांधी को आदिवासियों से अनायास मिली, जिसका उन्होंने आजीवन ‘सायास’ प्रयोग किया और ‘महात्मा’ कहलाए। पर अपने आदिवासी ‘गुरुओं’ के प्रति वे जिंदगीभर असहिष्णु बने रहे और कभी भी आदिवासी सवालों को तरजीह नहीं दी।

यह भी तथ्य है कि वेरियर एलविन और ठक्कर बापा को भी वे चालीस के दशक से पहले आदिवासियों के बीच काम करने से हतोत्साहित करते रहे। 1940 में जब झारखंड और उत्तर-पूर्व के आदिवासियों ने भारत के राजनीतिक पटल पर ब्रिटिश शासन और कांग्रेस को अपने जोरदार संघर्ष से शिकस्त दे दी, तभी उनका ध्यान आदिवासियों पर गया।


असहयोग आंदोलन के ठीक पहले के वर्षो में भारत के सभी आदिवासी क्षेत्रों में ब्रिटिश सत्ता और उसकी सरपरस्ती में शोषण कर रहे देशी राजाओं, जमींदारों व सूदखोर-महाजनों के खिलाफ आदिवासी युद्धरत थे। इनमें बस्तर के आदिवासियों का ‘भूमकाल’ आंदोलन (1910), झारखंड के आदिवासियों का ‘टाना भगत’ आंदोलन (1912), राजस्थान के आदिवासियों का ‘संप सभा’ आंदोलन (1913), मणिपुर के आदिवासियों का ‘कुकी’ आंदोलन (1917), महाराष्ट्र-गुजरात-राजस्थान के आदिवासियों का ‘देवी’ आंदोलन (1920) तथा उड़ीसा और आंध्र प्रदेश के आदिवासियों का द्वितीय ‘रम्पा’ (1921) सर्वविदित आंदोलन हैं।

इन आदिवासी आंदोलनों में से कई तो धारावाहिक रूप से जारी थे और कई ऐतिहासिक शोषण व तात्कालिक सरकारी नीतियों के खिलाफ शुरू हुए थे। गौर करने की बात है कि गांधीवादी और राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने (इनमें उदार, प्रगतिशील और वामपंथी इतिहासकार भी शामिल हैं)

आदिवासियों के इन आंदोलनों को गांधी के प्रभाव और ‘राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम की भारतीय चेतना’ से उपजा आंदोलन ही नहीं बताया है, सिद्ध भी किया है। जबकि सच्चाई यह है कि आदिवासी क्षेत्रों में गांधीवादियों, सोशलिस्टों और वामपंथियों के नेतृत्व में ‘भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन’ 1920 के बाद उभरता है। इंदुलाल याज्ञिक, अमृतलाल विठ्ठलदास ठक्कर, जुगतराम चिमनलाल दवे और बालासाहब गंगाधर खेर, ये चारों गांधी के विख्यात और सुप्रचारित ‘आदिवासी कमांडर’ हैं, जो आदिवासी इलाकों और आंदोलनों में ‘घुसपैठ’ करते हैं।

गांधी के एक ‘आदिवासी कमांडर’ वेरियर एलविन भी हैं, जिन्होंने अपना पूरा जीवन आदिवासियों के लिए समर्पित किया। मगर एलविन गांधी को इंदुलाल याज्ञिक, अमृतलाल ठक्कर, जुगतराम चिमनलाल दवे और बालासाहब गंगाधर खेर की तरह ‘प्रिय’ नहीं रहे। जमनालाल बजाज की सलाह पर जनवरी 1932 में एलविन अपने साथी शामराव हिवाले के साथ मंडला (छत्तीसगढ़) के मकाले पहाड़ पर स्थित गोंड आदिवासी गांव करंजिया पहुंचे और वहीं बस गए थे। यहां एलविन ने गांधी की सहमति से ‘गोंड सेवा मंडल’ नामक संस्था की शुरुआत की, लेकिन बाद में गांधी के आदिवासी संबंधी विचार और उपेक्षा के चलते उन्होंने इसका नाम बदल कर ‘भूमिजन सेवा मंडल’ कर दिया था।

गांधी के इन राष्ट्रवादी ‘कमांडरों’ का इतिहास बताता है कि आदिवासी आंदोलनों की शुरुआत में इनका कोई योगदान नहीं था। आदिवासी पहले से ही ब्रिटिश सत्ता और स्थानीय जमींदारों, महाजनों, सूदखोरों व बाहरी शोषकों से लड़ रहे थे। चालीस-पचास के दशक में जरूर आदिवासियों का एक हिस्सा भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन अथवा वामपंथी आंदोलन में शामिल हुआ, परंतु उनका संघर्ष भी मूलत: जल, जंगल, जमीन और अपने स्वशासी व्यवस्था के लिए किए जा रहे संघर्ष से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ था। मगर भारतीय इतिहासकारों ने अपने लेखन में भेदभावपूर्ण दृष्टि अपनायी और उपनिवेश विरोधी आदिवासी युद्धों को गांधी-कांग्रेस नेतृत्व वाली ‘राष्ट्रवादी आंदोलन’ बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी।


(लेखक संस्कृतिकर्मी हैं)
 


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