स्वायत्त संस्थाओं को मजबूत करने के नाम पर हो रहा इनका व्यावसायीकरण
शैक्षणिक और सांस्कृतिक संस्थाओं को खत्म कर देने से कुछ हजार करोड़ रुपये की बचत हो सकती है।
अनंत विजय
अब से करीब तीन साल पहले मई, दो हजार चौदह में जब केंद्र में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में सरकार बनी थी तो उन्होंने कई प्रयोग किए। कई संस्थाओं के नाम से लेकर उसके काम काज में भी आमूल-चूल परिवर्तन किए गए। ऐसी ही एक संस्था थी योजना आयोग। प्रधानमंत्री मोदी ने योजना आयोग का पुनर्गठन करते हुए उसका नाम बदलकर नीति आयोग कर दिया और टीम इंडिया की अवधारणा को मजबूत करने के लिहाज से उसके कामकाज में भी बदलाव किए गए। जाहिर सी बात है नीति आयोग की टीम में भी नए चेहरों को जगह दी गई। इस बात पर भी जोर था कि लालफीताशाही को हतोत्साहित किया जाए और देश को मजबूत करने की दिशा में ठोस नीतियां बनाकर उनका किय्रान्वयन किया जाए।
यह एक बहुत ही अच्छी सोच थी जिसका अमूमन हर तरफ स्वागत ही हुआ था। शुरुआत में नीति आयोग ने बेहतर तरीके से काम भी किया, अब भी कर रहे होंगे लेकिन हाल के दिनों में नीति आयोग ने कुछ विवादास्पद सुझाव देकर सरकार को बैकफुट पर जाने को मजबूर कर दिया। कुछ दिनों पहले नीति आयोग ने कृषि पर कर लगाने का प्रस्ताव देकर सरकार की किरकिरी करवा दी थी। नीति आयोग के सदस्य बिबेक देब रॉय ने आयोग की एक बैठक में किसानों को खेती से होने वाली आय पर टैक्स लगाने का सुझाव दिया। प्रधानमंत्री मोदी की अध्यक्षता में हुई नीति आयोग की इस बैठक में बिबेक देब रॉय ने तीन साल की कार्ययोजना को पेश करते समय कृषि से होने वाली आय को आयकर के दायरे में लाने की वकालत की। बिबेक देब रॉय ने कहा था कि आयकर का दायरा बढ़ाने का यह एक तरीका हो सकता है। बिबेक ने तमाम तरह के आयकर कानूनों का हवाला देते हुए अपना पक्ष रखा था। नीति आयोग के विजन डॉक्यूमेंट में एक हेडर है- इनकम टैक्स ऑन एग्रिकल्चर इनकम, जो कहता है कि ‘अभी खेती से होने वाली आय में हर तरह की छूट मिली है चाहे किसानों को कितनी भी आय हो। जबकि कृषि से होने वाली आय में छूट देने का उद्देश्य किसानों को संरक्षण देना था।
कभी-कभार इस छूट का बेजा इस्तेमाल भी होता है और खेती के अलावा अन्य आय को भी कृषि आय के रूप में दिखाकर टैक्स में छूट हासिल किया जाता है। कालेधन की समस्या से निबटने के लिए इस तरह के चोर दरवाजों को बंद करना होगा। ‘नीति आयोग के सदस्य बिबेक देब रॉय के इस बयान के बाहर आते ही पूरे देश में हंगामा मच गया। किसानों का मुद्दा हमेशा से हमारे देश में संवेदनशील रहा है। सरकार की किरकिरी होते देख वित्त मंत्री अरुण जेटली ने स्वयं मोर्चा संभाला और साफ कर दिया कि सरकार का कृषि को कर के दायरे में लाने का कोई इरादा नहीं है। जेटली के बयान के अड़तालीस घंटे भी नहीं बीते थे कि केंद्र सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम ने भी खेती पर टैक्स की बात कह कर सरकार को फिर धर्म संकट में डाल दिया था।
खेती से होने वाली आय पर टैक्स लगाने के नीति आयोग के प्रस्ताव को लेकर घिरी सरकार अभी संभली भी नहीं थी कि नीति आयोग ने एक और सुझाव दे डाला जिस पर सरकार ने अमल करना भी शुरू कर दिया है। यह सुझाव है कई मंत्रालयों के अंतर्गत काम कर रही स्वायत्त संस्थाओं के अलग अलग संस्थाओं में विलय करने का और कुछ संस्थाओं को कंपनी की तरह बनाने का। नीति आयोग ने कुछ छह सौ उनासी संस्थाओं को चिन्हित किया है जिन्हें चरणबद्ध तरीके से पुनर्गठन के नाम पर अलग अलग संस्थाओं में मिलाकर नई पहचान देने का काम शुरू किया जा चुका है। पहले चरण में उन स्वायत्त संस्थाओं को चिन्हित किया गया है जो सोसाइटीज एक्ट के तहत निबंधित होकर काम करते हैं।
सुझाव है कि भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद, इंडियन काउंसिल ऑफ फिलॉसफिकल रिसर्च और इंडियन काउंसिल ऑफ सोशल साइंस रिसर्च को एक साथ मिलाकर एक नई संस्था का गठन किया जाए या फिर इन सबको जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के साथ विलय कर दिया जाए। इसी तरह से सिंधी भाषा के प्रचार प्रसार के लिए बनी संस्था नेशनल काउंसिल फॉर प्रमोशन ऑफ सिंधी लैंग्वेज को मैसूर से सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ लैंग्वेज के साथ और उर्दू के विकास के लिए गठित नेशनल काउंसिल ऑफ प्रमोशन ऑफ उर्दू को जामिया मील्लिया इस्लामिया या मौलाना आजाद उर्दू विश्वविद्यालय के साथ जोड़ दिया जाए। अब तक करीब चालीस संस्थाओं के विलय या उनको बंद करने पर काम शुरू हो चुका है।
नीति आयोग के सुझावों के मुताबिक पुणो स्थित फिल्म एवं टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और सत्यजीत रॉय फिल्म और टेलीविजन संस्थान को मिलाकर एक करने का विचार है। इसी तरह से देश के प्रतिष्ठित पत्रकारिता संस्थान इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन(आइआइएमसी) को जामिया मिल्लिया इस्लामिया या जेएनयू के साथ विलय का प्रस्ताव है। तर्क दिए जा रहे हैं कि जिन छह सौ उनासी स्वायत्त संस्थाओं को चिन्हित किया गया है उन पर बहत्तर हजार करोड़ का खर्च हो रहा है। इनमें से कई संस्थाएं एक ही तरह के काम कर रही हैं, लिहाजा उनका विलय जरूरी है। इस प्रस्ताव पर काफी तेजी से काम हो रहा है और इन संस्थाओं को आपत्तियां भेजने की खानापूरी करने को भी कहा गया है। जब ये संस्थाएं आपत्ति भेज रही हैं तो उनको कहा जा रहा है कि विलय की तैयारी करिए।
पुनर्गठन या फिर वित्तीय अनुशासन बहाल करने के नाम पर यह प्रस्ताव देखने में अवश्य अच्छा लगता है लेकिन इसके नतीजे बहुत गंभीर होने वाले हैं। इस वर्ष केंद्र सरकार दीन दयाल उपाध्याय की जन्मशती वर्ष मना रही है और उनके उनके विचारों को फैलाने का काम भी कर रही है। दीनदयाल उपाध्याय जी की पूरी सैद्धांतिकी विकेंद्रीकरण को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बढ़ावा देती है। उनकी जन्मशती वर्ष में बजाए विकेंद्रीकरण को बढ़ावा देने के ये सरकार केंद्रीकरण को बढ़ावा दे रही है। इस पर ध्यान देने की जरूरत है। आश्चर्य की बात है कि स्वायत्त संस्थाओं को मजबूत करने के नाम पर इनका व्यावसायीकरण करने की योजना परवान चढ़ाई जा रही है और हमारा बौद्धिक वर्ग खामोश है।
पहले इस तरह की कई संस्थाओं को अपने खर्च का तीस फीसदी खुद से जुटाने का आदेश दिया गया था और अब उनके सामने अस्तित्व का संकट खड़ा किया जा रहा है। अब अगर हम एक दो उदाहरण से इस प्रस्ताव की खामियों को समझने की कोशिश करें तो वे खतरे साफ हो जाते हैं। केंद्रीय हिंदी संस्थान को संभवत: इलाहाबाद विश्वविद्यालय या काशी हिंदू विश्वविद्यालय में विलय करने का विकल्प दिया गया है। इस संस्था को कमजोर कर सरकार हिंदी के साथ चाहे अनचाहे अन्याय कर रही है। यह संस्थान हिंदी के विकास और प्रचार प्रसार के लिए गंभीरता से काम कर रही है। यहां प्रतिवर्ष बयालीस देशों के दो सौ छात्र हिंदी सीखते हैं जो अपने अपने देश में जाकर हिंदी का प्रचार प्रसार करने में सहयोग करते हैं।
इस संस्थान में गैर हिंदी प्रदेशों के शिक्षकों को प्रशिक्षित किया जाता है। ये संस्था अनुवादकों को तैयार करती है। इसी तरह से एक और संस्थान है, केंद्रीय हिंदी निदेशालय,यह संस्था भी अपने प्रकाशनों और आयोजनों से हिंदी को समृद्ध कर रही है। अब इनको उन विश्वविद्यालयों के साथ जोड़ने की बात की जा रही है जो खुद जांच के दायरे में हैं। इनमें से कई विश्वविद्यालयों को मंत्रलय लगभग निकम्मा या बदतर काम करने वाले की श्रेणी में रखते हैं। अगर विश्वविद्यालयों के साथ इन संस्थानों को जोड़ दिया तो ये भी उसी तरह की संस्कृति के शिकार हो जाएंगे। सरकार को अपने लोक कल्याणकारी स्वरूप को नहीं भूलना चाहिए। किसी भी संस्था को बनाना बहुत मुश्किल होता है और उसको खत्म करने में ज्यादा वक्त नहीं लगता है।
जब इन संस्थाओं का गठन किया गया था तब से लेकर अब तक इनमें जो काम हुआ है उसका ऑडिट होना चाहिए। उसके बाद ही किसी तरह का फैसला होना चाहिए। अगर इन संस्थाओं में संतोषजनक काम नहीं हुआ तो उसके लिए कोशिश करनी चाहिए। संस्थाओं को खत्म कर देने से कुछ हजार करोड़ रुपये की बचत हो सकती है लेकिन उससे जो भाषा, कला और संस्कृति को नुकसान होगा उसका आकलन नीति आयोग के अफसर नहीं कर सकते। वैसे भी अगर देखा जाए तो भाषा के लिए काम रही संस्थाओं पर सरकार प्रतिवर्ष, एक अनुमान के मुताबिक, चार सौ करोड़ ही खर्च करती है। इन संस्थाओं को कंपनियों में बदलकर उनसे मुनाफे की अपेक्षा नहीं की जा सकती है क्योंकि ये जो काम कर रही हैं उसको नफे नुकसान के पैमाने पर मापा नहीं जा सकता है।