दिखावे भर के लिए ही है कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव, राहुल के लिए चुनौतियां भी कई
राहुल गांधी का कांग्रेस अध्यक्ष बनना महज रस्म अदायगी है, लेकिन इससे भाजपा उस पर और आक्रामक हो जाएगी।
कांग्रेस पार्टी अपना नया नेतृत्व चुनने जा रही है। पहली नजर में यह खबर लोकतांत्रिक चरित्र का मालूम पड़ती है। मगर जैसे ही यह समझ में आता है कि यह एक मां का अपना उत्तराधिकारी तय करना भर है तो देश के सबसे पुराने दल और उसके भीतर का लोकतांत्रिक दिखावा खुलकर सामने आ जाता है। नेहरू-गांधी परिवार से राहुल छठे व्यक्ति होंगे, जो कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व संभालेंगे। मतलब यह कि कांग्रेस के सिर पर वंशवाद का एक और कलश सजने जा रहा है। बहरहाल, पार्टी की मौजूदा अध्यक्ष सोनिया गांधी के आवास पर हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में जो चुनावी कार्यक्रम तय हुए हैं, उसके मुताबिक चुनाव की अधिसूचना एक दिसंबर को जारी होगी और नामांकन की अंतिम तारीख 4 दिसंबर तय की गई है।
यदि चुनाव की नौबत आती है तो मतदान 16 दिसंबर को होगा और मतगणना 19 दिसंबर को कराई जाएगी। वैसे यह पहले से तय माना जा रहा है कि राहुल गांधी के खिलाफ कोई भी नेता नामांकन पत्र दाखिल नहीं करेगा। लिहाजा 4 दिसंबर को ही उनका निर्विरोध चुना जाना तय है। दरअसल, कांग्रेस में नया नेतृत्व चुनने की पूरी पटकथा एक साल पहले तय हो गई थी। पिछले साल नवंबर में हुई एक बैठक में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी शरीक नहीं हुई थीं। उनकी गैरहाजरी में पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने बैठक ली थी।
बैठक का कुल जमा हासिल यह रहा था कि कार्यसमिति ने एक सुर में पार्टी की कमान राहुल को सौंपने की बात कही और वह भी इस बात को विनम्रता से मान गए थे। जिस तरह अभी हिमाचल प्रदेश और गुजरात के विधानसभा चुनाव होने हैं, उसी तरह सिर पर थे यूपी और पंजाब के विधानसभा चुनाव। कहना मुश्किल है कि राहुल गांधी के लिए कांग्रेस अध्यक्ष बनने का मुहूर्त एक साल पहले ज्यादा सही साबित होता या अब साबित होगा। क्योंकि पिछली बार तो उसके खाते में पंजाब की जीत आ भी गई थी, इस बार गुजरात और हिमाचल दोनों जगह पार्टी हारी तो इसे कांग्रेस के नए नेतृत्व की विफलता से सीधे-सीधे जोर कर देखा जाएगा।
संभव है कि कांग्रेस के भीतर भी दबे सुर में कुछ कहासुनी हो। क्योंकि यह तो अभी से मानकर चला जा रहा है कि सोनिया गांधी ने बीते डेढ़ दशक में जिस तरह पार्टी को अपने मुताबिक अनुशासन में चलाया, वैसी स्थिति शायद आगे नहीं रहने वाली है। इसलिए एक बात यह भी कही जा रही है कि राहुल गांधी हो सकता है कि अध्यक्ष बनने के बाद दल में अपने लिए अलग से दो सहयोगियों का चयन करें। ऐसा प्रयोग सरकार के स्तर पर भाजपा यूपी में कर भी रही है। वहां मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने सहयोग के लिए दो उपमुख्यमंत्री बनाए हैं।
इससे पूर्व राहुल गांधी ने 2004 में सक्रिय राजनीतिक में कदम रखा था और चार साल पहले यानी 2013 में उन्हें पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया गया था। 2014 के लोकसभा चुनाव में अगर पार्टी नहीं हारी होती तो राहुल की ताजपोशी तीन साल पहले ही हो गई होती। अभी खासतौर पर गुजरात चुनावों में वे जमकर प्रचार कर रहे हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के गढ़ में उन्हें जोरदार चुनौती दे रहे हैं। गुजरात में भाजपा को कांग्रेस यह चुनौती भले पाटीदार नेताओं के भरोसे दे रही हो, पर अंदरूनी आकलन में वह वहां अपनी स्थिति अच्छी मान रही है।
अलबत्ता जिस तरह वहां टिकट बंटवारे को लेकर कांग्रेस और युवा पाटीदार नेताओं के बीच दिख रहा है, उसे देखकर नहीं लगता कि कांग्रेस आगे वहां पूरी तरह सियासी बाजी पलटने की स्थिति होगी। पर इस टाइमिंग को कुछ राजनीतिक विश्लेषक इस लिहाज से जरूर सही मान रहे हैं क्योंकि बीते साढ़े तीन सालों से राहुल गांधी पहली बार मोर्चे पर आकर नरेंद्र मोदी और अमित साह को चुनौती देते दिख रहे हैं। इससे पहले जब वे हाल में अमेरिकी दौरे पर थे, तभी इस बारे में उन्होंने अपना एजेंडा साफ कर दिया था। इसमें नोटबंदी और जीएसटी विरोध के साथ पार्टी के भीतर बड़ी जवाबदेही की तैयारी शामिह है।
संभव है कि पार्टी ने अपने आत्म-मूल्यांकन में पाया होगा कि राहुल गांधी की अध्यक्ष पद पर ताजपोशी का गुजरात चुनावों पर सकारात्मक असर होगा। ऐसा इसलिए क्योंकि सोनिया गांधी इस बार चुनाव प्रचार से पूरी तरह बाहर हैं। इसलिए अध्यक्ष पद पर राहुल को बैठाने के साथ कांग्रेस कहीं न कहीं यह संदेश भी देना चाह रही है कि पार्टी के भीतर राहुलयुग अब शुरू होने जा रहा है। सोनिया गांधी 1998 से कांग्रेस अध्यक्ष हैं और कांग्रेस के इतिहास में सबसे लंबा कार्यकाल उनका ही है। इस लंबे कार्याकाल के बाद राहुलयुग में कांग्रेस अपने संकट दौर से कैसे बाहर निकलेगी, इस बारे में कुछ संकेत अभी से पढ़े-समझे जा सकते हैं।
मसलन, एक बार फिर यह साफ हो गया कि देश की सबसे पुरानी पार्टी बगैर अपने सांगठनिक चरित्र को बदले और बगैर आंतरिक लोकतंत्र को सुदृढ़ किए एक बार फिर सत्ता की रेस में सबसे आगे भागना चाहती है। दूसरी बात यह कि धर्मनिरपेक्षता और आर्थिक नीतियों के सवाल पर कांग्रेस कहीं न कहीं अपनी उस लेबलिंग से बाहर आना चाहती है, जो मनमोहन सिंह के दौर से उस पर लगी है। मंदिर-मंदिर मत्था टेकने वाले राहुल भरसक इस कोशिश में लगे हैं उनकी धर्मनिरपेक्षता को कम से कम बहुसंख्यक विरोध के तौर पर न देखा जाए। इसी तरह आर्थिक मोर्चे पर और खुलेपन के बजाय वे किसान और छोटे उद्योगों की बात ज्यादा कह रहे हैं।
नीति और सोच के इस फर्क से कांग्रेस के चुनावी दांव में भले फर्क आए पर इसके उलट भाजपा जिस तरह पूरे देश में आक्रामक विस्तार के एजेंडे पर चल रही है, उसमें नहीं लगता कि कांग्रेस के ये दांव ज्यादा कारगर साबित होंगे। उलटे जो एक मुसीबत राहुल गांधी के अध्यक्ष बनते ही कांग्रेस पर आ सकती है, वह यह कि गठबंधन राजनीति में उनकी स्वीकार्यता चूंकि सोनिया के मुकाबले काफी कमजोर है, इसलिए वोटों के ध्रुवीकरण के इस गणित में वे शायद काफी मार खा जाएं। स्वीकार्यता का यह संकट राहुल गांधी को विपक्ष का सर्वमान्य नेता मानने को लेकर भी खड़ा होगा। ऐसे में यह राहुल ही पर है कि वह अपने नेतृत्व को किस तरह चुनौतियों की नई कसौटी पर कसते हैं।
प्रेम प्रकाश
(लेखक डेवेलप्मेंट ऑप्शन्स फॉर सोशल ट्रान्सफॉर्मेशन के संस्थापक सदस्य हैं)
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