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जानें, राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के सामने क्या होंगी चुनौतियां

रामनाथ कोविंद देश के चौदहवें राष्ट्रपति के रूप में शपथ ले चुके हैं। उनकी इस शपथ के साथ देश की एक बड़ी उम्मीद जुड़ गई है।

By Lalit RaiEdited By: Published: Wed, 26 Jul 2017 09:59 AM (IST)Updated: Wed, 26 Jul 2017 09:59 AM (IST)
जानें,  राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के सामने क्या होंगी चुनौतियां
जानें, राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के सामने क्या होंगी चुनौतियां

कृष्ण प्रताप सिंह

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देश के चौदहवें राष्ट्रपति का चुनाव संपन्न हो जाने के बाद की एक विडंबना देखिए। रामनाथ कोविंद की जीत के साथ होना यह चाहिए था कि बीस साल के अंतराल के बाद अपना दूसरा दलित राष्ट्रपति पाकर दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के नागरिक बल्लियों उछल रहे होते, लेकिन कुछ प्रायोजित जश्नों को छोड़ दें तो, और तो और, दलितों में भी कोई स्वत: स्फूर्त प्रसन्नता नजर नहीं आ रही।बहुत संभव है कि पिछले सत्तर सालों में देश के एक से बढ़कर एक लोकतांत्रिक चमत्कारों से गुजर चुकने के बावजूद दलित के दलित ही रह जाने की उन पर बरबस थोप दी गई नियति से जनमी ऊब या कि उकताहट उन्हें इसकी इजाजत न दे रही हो। मगर दूसरी ओर कोविंद की भावुकता है कि अपनी कोई सीमा ही नहीं मान रही।

अपनी भूली-बिसरी गरीबी के किस्से याद करते व सुनाते हुए वे कह रहे हैं कि उन्होंने तो कभी सोचा ही नहीं था कि वह एक दिन देश के राष्ट्रपति बन जाएंगे। उन्हें यह बताने का शायद यही सबसे मुनासिब वक्त है कि ‘जो कभी सोचा नहीं, वह हो जाने’ का उनका अहसास भले ही नया और आहलादक हो, देश का पुराना पड़ चुका और बहुत त्रसद है। इसलिए कि अपनी राजनीति से उसके रिश्तों में इतनी उलझनें घर बना चुकी हैं कि उसे राजसत्ता के प्रांगण में जो कुछ भी घटता है, आमतौर पर उन अघटनीय जैसा ही लगता है, जिनके बारे में उसने कभी सोचा नहीं होता या सोचना नहीं चाहता।

मिसाल के लिए, उसने कब सोचा था कि उसकी आजादी पचहत्तर साल की होने के पहले ही उसकी सत्ताओं द्वारा लगातार बढ़ाई जाती रही सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक गैरबराबरियों का ग्रास होकर उच्च व मध्य वर्गो और उनकी सुखासीन जमातों के मनपसंद हथियार में बदल जाएगी। फिर उसके यह सोचने का तो सवाल ही नहीं था कि इस आजादी की बिना पर हासिल लोकतंत्र की सारी की सारी सहूलियतों को ये वर्ग मिलकर ऊपर ही ऊपर न सिर्फ लोक बल्कि अपनी उपलब्धियों में ढाल लेंगे और आम लोगों की सार्थकता उनकी जय-जयकार करने या उनके द्वारा प्रदर्शित पराक्रमों पर खुश होकर तालियां बजाने तक ही सीमित हो जाएगी।


फिर यही किसने सोचा था कि चमत्कारों में विश्वास करने वाले इस देश में लोकतंत्र को भी जीवनदर्शन या कि शासन पद्धति के बजाय चमत्कारों के अनैतिक खेल (पढ़ें खिलवाड़) में बदल दिया जाएगा, जिसके थोड़े ही दिनों बाद अमीरी समेत तमाम घृणास्पद वस्तुओं की प्रदर्शनियां आयोजित की जाने लगेंगी और न्यायोचित अवसरों से महरूम गरीबों, दलितों व वंचितों को जरा-जरा से सुभीतों के लिए कोई न कोई चमत्कार घटित होने की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, साथ ही हमेशा अपने विरोध में खड़ी राजनीति का ‘कृतज्ञ’ होना पड़ेगा। फिर हालात यहां तक पहुंच जाएंगे कि उनके कल्याण की बात करते न अघाने वाले उनके स्वजातीय महाजन भी इस राजनीति के खिलौने हो जाएंगे और यह राजनीति उन्हें दिखाकर अपनी दरियादिली का बखान किया करेगी। धीरे-धीरे उसकी माया ऐसी उदित होगी कि जो महानुभाव कभी रामराज कहलाना पसंद नहीं करते थे, उदितराज बनकर उसकी धुन पर नाचते-नाचते अपना मूल मिशन ही भूल बैठेंगे।

यह कहना अगर ज्यादा अप्रिय लगे कि यह राजनीति कोविंद को भी इसीलिए बेहद अप्रत्याशित रूप से जिताकर लाई है कि वे राष्ट्रपति भवन में उसके राम बनकर रहेंगे तो भी इतना तो पूछा ही जा सकता है कि देश ने कब सोचा था कि एक दिन उसके राष्ट्रपति के निर्वाचक मंडल मंश कम से कम एक तिहाई दागी शामिल हो जाएंगे और करोड़पतियों की संख्या उनसे भी ज्यादा हो जाएगी, जबकि उसमें आधी दुनिया के लिए केवल नौ फीसद जगह होगी। सिलसिले को और आगे बढ़ाएं तो यही भला किसने सोचा था कि शपथग्रहण के भव्य जश्न के बीच देश का दूसरा दलित राष्ट्रपति ‘गरीबों के प्रतिनिधि के रूप में’ विशाल राष्ट्रपति भवन में जाने और ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ के आदर्श के तहत सेवा करने का एलान करेगा तो उसकी जगर-मगर में खोया हुआ-सा अपनी मुफलिसी के दिनों को ऐसे याद करेगा, जैसे बाकी दलितों के इस सवाल से नजरें चुराना चाहता हो कि गरीबी से मुक्ति के उसके प्रयास इतने निजी या कि पारिवारिक स्तर तक ही सिमटकर क्यों रह गए? या क्योंकर उसने उन्हें किसी सामूहिक मुक्ति संकल्प में नहीं बदला? अगर उसका यह भूलना उन लोगों की संगति का असर है, जो गंगा की सफाई की हवा-हवाई बातें करते हुए भोले-भाले लोगों के मनों में तरह-तरह के मैल भरने में लगे हैं तो उसके इतने गहरे असर का अनुमान ही भला कब और किसने लगाया?

अच्छी बात है कि इस असर के बावजूद कोविंद यह नहीं भूले हैं कि कितने ही रामनाथ अभी भी सिर पर छप्पर न होने के कारण बारिश में भीग रहे होंगे या खेतों में हड्डियां तोड़ते हुए शाम के भोजन की चिंता कर रहे होंगे। बेहतर होता कि यों भावुक होते हुए वे यह भी याद करते कि राष्ट्रपिता ने कहा था कि कोई लोकतंत्र तब तक सार्थक नहीं हो सकता, जब तक आखिरी व्यक्ति की आंख के आंसू पोंछने की चिंता में निमग्न न हो। याद करते तो उन्हें यह भी याद आता कि किसी ने यह भी नहीं सोचा था कि आम लोगों द्वारा चुनी गई सरकारें भी उस आखिरी आदमी के आंसू पोंछने के बजाय कभी उसे भड़काने, कभी रुलाने और दोनों ही स्थितियों से लाभ उठाने पर उतर आएंगी?

यकीनन, किसी ने यह भी नहीं सोचा था कि दलितों व वंचितों के प्रतिनिधि भी इन लाभ उठाने वाली कवायदों और उनके बेहिस जश्नों का हिस्सा बनेंगे तो याद नहीं कर पाएंगे कि इस सबका बोझ अंतत: वह आखिरी आदमी ही उठाता है, देश के ज्यादातर जनप्रतिनिधि जिसके नाम पर बनी सरकारों का संचालन करते-करते अरबपतियों व खरबपतियों में बदल गए हैं, फिर भी ‘गरीबों के प्रतिनिधित्व का ओढ़ा हुआ खोल नहीं उतार रहे? क्या उन्हीं की तर्ज पर गरीबों के प्रतिनिधि बनकर राष्ट्रपति भवन जा रहे कोविंद देश के किसी ऐसे जनप्रतिनिधि का नाम बता सकते हैं, जो ‘अमीरों के प्रतिनिधि’ के तौर पर काम करना चाहता हो? तब किसने सोचा था कि एक दिन ये सारे अमीर जनप्रतिनिधि मिलकर गरीबों से अपनी जमात के प्रतिनिधित्व का कार्यभार भी छीन लेंगे?


पहले दलित राष्ट्रपति के.आर. नारायणन ने एक स्वतंत्रता दिवस पर देश को संबोधित करते हुए कहा था कि अब मुश्किल सिर्फ इतनी सी नहीं है कि दलितों व वंचितों का इंसाफ का इंतजार लंबा होता जा रहा है। बड़ी मुश्किल यह है कि देश एक ‘प्रतिक्रांति’ के मुहाने पर जा खड़ा हुआ है। रामनाथ कोविंद देश की सबसे बड़ी सेवा करेंगे अगर वे इस अंदेशे से सचेत रहें कि कहीं प्रतिक्रांतिकारियों ने इस प्रतिक्रांति को उन्हीं के हाथों पूरी कराने का इरादा न बना रखा हो।


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
 


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