जागरण संस्कारशाला: भिन्नता में एकता
भारत के नागरिकों का अलग-अलग स्वरूप पूरे देश को पूर्णता प्रदान करता है, मधुर संगीत की तान छेड़ता है।
नई दिल्ली (जेएनएन)। भारत विविधताओं वाला देश है। कहावत है, ‘कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वाणी।’ भारत में हर चार कोस पर वाणी में विविधता प्रकट होने लगती है, लोगों की वेशभूषा और खानपान में अंतर नजर आने लगते हैं। पूर्व,पश्चिम, उत्तर, दक्षिण- इन चारों कोनों के निवासियों की वेशभूषा, व्यक्तित्व, रंग, भाषा आदि वहां की भौगोलिक स्थिति और परिवेश के अनुसार निर्धारित होती है। विविधता में ही सौंदर्य है। कविविनयचंद्र मौदगल्य ने अपनी कविता में भारत की विविधता का बहुत सुंदर और मनोरम वर्णन किया है- ‘हिंद देश के निवासी सभी जन एक हैं, रंग-रूप, वेशभूषा चाहे अनेक हैं।’ सब कुछ सुंदर है, लेकिन फिर भी लोग विविधता का हृदय से सम्मान नहीं करते हैं। तभी तो उन्होंने इस विविधता को अपनी सुविधा के अनुसार छोटी-बड़ी श्रेणियों में निर्धारित कर दिया है। मसलन गोरा रंग अच्छा है, तो काला रंग बुरा। उत्तरदक्षिण और पूर्वोत्तर भारतीयों में फर्क किया जाता है।
दक्षिण भारतीय लोगों का रंग गहरा है, तो पहाड़ियों का रंग गोरा। इस विविधता के प्रति सम्मान का अभाव भी स्पष्ट झलकता है। आखिर क्यों? इस तरह की बातें एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक चलती रहती हैं। क्यों अपने देश के नागरिकों का ही मजाक उड़ाने में हमें एक संतुष्टि का भाव मिलता है? आखिर इसके पीछे क्या कारण है? गहनता से सोचा जाए, तो यह बात सामने आती है कि ये बातें एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक और एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक तेजी से फैलती हैं। यही बातें जब बच्चों के कोमल मन में अंकित होती हैं, तो वहां एक छाप पड़ जाती है और बड़े होने पर यही बच्चे विविधता में असमानता खोजने लगते हैं। स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ सिद्ध करने की भावना दूसरों की कमी का मखौल उड़ाने से नहीं चूकती। कई बार तो विविधता में असमानता ढूंढ कर उन पर व्यंग्य करने वाले लोगों को स्वयं ही यह पता नहीं होता कि वे बिना कोई ठोस वजह ढूंढे उस पर व्यंग्य क्यों कर रहे हैं? प्रत्येक नागरिक को केवल ऊपरी तौर पर नहीं, बल्कि आंतरिक तौर पर इस बात को गहनता से जानना व मानना चाहिए कि भारत की विविधता का एक अनूठा सौंदर्य है।
भारत के नागरिकों का अलग-अलग स्वरूप पूरे देश को पूर्णता प्रदान करता है, मधुर संगीत की तान छेड़ता है। यदि संगीत में एक ही सुर होता, तो संगीत का आनंद कहां रह जाता? इसी तरह यदि पूरे विश्व में चेहरों, खानपान, बोली आदि में भिन्नता न होती, तो हर ओर एकरसता पसर जाती। जिन स्थानों पर हमेशा बर्फ अथवा कालिमा छाई रहती है वहां के लोगों का जीवन बेहद उदासीन और नीरस हो जाता है। हम बेहद सौभाग्यशाली हैं, जो भिन्न-भिन्न ऋ तुओं, मौसमों, खानपान और एक-दूसरे की संस्कृति को देखते हैं और इनका आंनद उठाते हैं। हमें इन विविधताओं का सम्मान करना चाहिए। इनसे सीख लेनी चाहिए और अपने दिमाग से इस बात को बिल्कुल निकाल देना चाहिए कि अमुक प्रदेश के वासी अच्छे नहीं हैं अथवा शारीरिक रूप से सुंदर नहीं हैं या फिर उनमें कोई और कमी है। प्रत्येक व्यक्ति संपूर्ण एवं अपूर्ण दोनों ही है।
हम सभी पहले भारतीय हैं और बाद में कुछ और। हमारी विविधता में ही एकता है। जब हमारे खिलाड़ी विदेश में खेलने जाते हैं, तो पूर्व से लेकर पश्चिम तक, उत्तर से लेकर दक्षिण तक सारा भारत एक सूत्र में बंध जाता है। उस समय किसी के दिमाग में पहाड़ी, बंगाली, मद्रासी अथवा पूर्वी राज्यों के निवासियों का खयाल तक नहीं उभरता। कर्णम मल्लेश्वरी आंध्र प्रदेश की हैं, तो मैरी कॉम मणिपुर की और गीता फोगाट हरियाणा की। जब ये तीनों भारत के लिए खेलती हैं, तो इनकी विविधता अथवा राज्य बाद में ध्यान आता है। यही छवि हम सभी को प्रत्येक भारतीय में हर रोज देखनी चाहिए। यदि ऐसा शीघ्र हो जाए, तो वह दिन दूर नहीं जब सभी लोग इस विविधता का हृदय से सम्मान करेंगे और देश को प्रगति पथ पर बढ़ाने के लिए मिलकर तत्पर होंगे। -रेनू सैनी
किशोरों को अलग-अलग जाति, धर्म, राष्ट्र के लोगों से दोस्ती करने के लिए प्रेरित करें। अपने साथ उन्हें म्यूजियम जरूर ले जाएं, ताकि अलग-अलग संस्कृति, देश की शिल्पकृतियों के बारे में वे अवगत हो सकें। उनके लिए किताबें, म्यूजिक, वीडियोज आदि का चुनाव करते समय विशेष सतर्कता बरतें। ये सभी चीजें उनकी प्रवृत्ति या नजरिये को अत्यधिक प्रभावित करती हैं। अपनी परंपराओं से इतर भी अलग-अलग धर्म-जाति के पर्व-त्योहार के बारे में उन्हें समुचित जानकारी दें। अलग-अलग समुदायों के त्योहारों को मनाने वाले कार्यक्रमों जैसे कि होली, ईद, पोंगल, क्रिसमस या कोई चीनी नव वर्ष आदि में भी किशोरों के साथ शामिल हों। इससे उनमें विविधतापूर्ण आर्ट, क्राफ्ट, म्यूजिक, डांस आदि के प्रति प्रेम और सम्मान का भाव विकसित हो सकता है।- सोनिया पुआर, मनोचिकित्सक