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'सवाल पांच पैसे का नहीं, इज्जत का है'

'बात पांच पैसे की या 41 वर्षो से चल रही लड़ाई की नहीं है। बात इज्जत की है। मेरी लड़ाई तब तक खत्म नहीं होगी, जब तक मेरे माथे पर लगा कलंक का टीका धुल नहीं जाता।' उम्र के चौथेपन में दाखिल हो चुके 73 वर्षीय रणवीर सिंह यादव बताते हैं कि पांच पैसे के लिए, वह भी झूठे मामले में जिस तरह दिल्ली परिवहन नि

By Edited By: Published: Mon, 28 Jul 2014 08:19 AM (IST)Updated: Mon, 28 Jul 2014 08:29 AM (IST)
'सवाल पांच पैसे का नहीं, इज्जत का है'

पश्चिमी दिल्ली, [गौतम कुमार मिश्र]। 'बात पांच पैसे की या 41 वर्षो से चल रही लड़ाई की नहीं है। बात इज्जत की है। मेरी लड़ाई तब तक खत्म नहीं होगी, जब तक मेरे माथे पर लगा कलंक का टीका धुल नहीं जाता।' उम्र के चौथेपन में दाखिल हो चुके 73 वर्षीय रणवीर सिंह यादव बताते हैं कि पांच पैसे के लिए, वह भी झूठे मामले में जिस तरह दिल्ली परिवहन निगम (डीटीसी) ने मुझे अपमानित किया, वह पीड़ा शब्दों से बयां नहीं हो सकती है। उम्र के जिस दौर में लोग मानसिक शांति व मोक्ष के लिए तीर्थ स्थलों की यात्रा पर जाते हैं, मैं अदालतों की सीढि़यां चढ़ रहा हूं और तब तक चढ़ता रहूंगा, जब तक डीटीसी अपनी हार नहीं मान जाता ।

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नांगलोई निवासी रणवीर सिंह यादव की पीड़ा की शुरुआत 1 अगस्त, 1973 को हुई। रणवीर सिंह डीटीसी बस में बतौर कंडक्टर हरिनगर डिपो में कार्यरत थे। याद्दाश्त पर जोर देते हुए रणवीर बताते हैं कि सुबह सात बजे का समय रहा होगा। एक महिला कीर्तिनगर के आसपास बस में चढ़ी थी। उसने दस पैसे का टिकट लिया। रास्ते में बस की चेकिंग शुरू हुई। चेकिंग करने वाले ने महिला से जब उसका गंतव्य पूछा तो उसने जहां की बात कही, वहां का किराया 10 के बजाय 15 पैसे का था। इस पर डीटीसी ने रणवीर पर पांच पैसे के नुकसान का आरोप लगाते हुए नौकरी से पहले निलंबित, बाद में बर्खास्त कर दिया। पहले यह मामला श्रम न्यायालय, बाद में उच्च न्यायालय तक पहुंचा। हर जगह रणवीर ने जीत पाई, लेकिन जीत की खुशी फौरन काफूर हो जाती। हर फैसले के खिलाफ डीटीसी की ओर से पुनर्विचार याचिका दायर कर दी जाती। अब यह मामला उच्च न्यायालय में लंबित है।

रणवीर बताते हैं कि वे लगातार 41 वर्षो से मानसिक त्रासदी, शारीरिक कष्ट, आर्थिक कष्ट, बीमारी एक साथ सभी से मुकाबला कर रहे हैं। 'जब यह लड़ाई शुरू हुई थी तब उनके बच्चे छोटे थे। आज छोटा बेटा 38 वर्ष का हो चुका है। इस बीच कई बार रोटी के लाले पड़े। दो वक्त की रोटी के लिए चाय की दुकान खोली। कबाड़ी का भी काम किया। कई बार ऐसा लगा कि यह क्या हो रहा है? इस बीच प8ी मानसिक अवसाद की रोगी बन गईं। लेकिन हार नहीं मानी। '

उस दिन हुई थी सबसे अधिक पीड़ा

अदालत के हस्तक्षेप के बाद मुझे डीटीसी ने फिर से रख लिया था, लेकिन ड्यूटी नहीं दी जाती थी। वर्ष 2002 में सेवानिवृत्त हुआ तब बड़ी पीड़ा हुई। दोस्तों की सेवानिवृत्ति पर बैंड बाजे के साथ विदाई होती, लेकिन मुझे चुपचाप विदाई मिली।

पढ़ें: 5 पैसे की लड़ाई.और बीत गए 41 साल


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