आर्थिक मोर्चे पर बढ़ा देश लेकिन रोजगार बढ़ते की बजाए हुए कम
आर्थिक मोर्चे पर देश बढ़ता हुआ प्रतीत हो रहा है, लेकिन नए रोजगार सृजित होने के स्थान पर तेजी से खत्म हो रहे हैं।
अभिषेक कुमार
भारत में रोजगार एक बड़ा मुद्दा है जिस पर सरकारों का बनना-बिगड़ना भी निर्भर करता है। नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने चुनावी अभियान के दौरान हर साल एक करोड़ नौकरियों के सृजन का दावा किया था। वह अपने दावे पर अब भी कायम है, लेकिन उसी का श्रम मंत्रलय जो आंकड़े लेकर आया है उनमें तस्वीर का दूसरा पहलू दिख रहा है। रोजगार बढ़ने की बजाय घट गए हैं। आर्थिक मोर्चे पर देश बढ़ता हुआ प्रतीत हो रहा है, लेकिन नए रोजगार सृजित होने के स्थान पर तेजी से खत्म हो रहे हैं। जिस देश में हर साल 1.30 करोड़ नौजवान श्रमशक्ति में शामिल हो रहे हों, पर उन्हें कोई नौकरी या कामकाज नहीं मिले तो इसे सबसे बड़ी त्रसदी समझना चाहिए।
हालांकि कुछ सरकारी विभाग रोजगार संबंधी प्रधानमंत्री के चुनावी वादे के साथ खड़े हुए हैं और वे यह मानने को तैयार नहीं है कि रोजगार सृजन की दर घट गई है। कुछ ही समय पहले भारतीय स्टेट बैंक ने ‘इको फ्लैश’ नामक सर्वेक्षण का हवाला दावा किया था कि पिछले साल अगस्त 2016 में बेरोजगारी की दर 9.5 प्रतिशत थी, जो इस साल फरवरी, 2017 में घटकर 4.8 फीसदी रह गई। ऐसे आंकड़ों की रोशनी में भारतीय जनता पार्टी ने बेरोजगारी दर घट जाने का दावा किया था। मगर इधर श्रम मंत्रलय के ‘लेबर ब्यूरो’ ने इन आंकड़ों की कलई खोलकर रख दी है। ‘लेबर ब्यूरो’ ने दस साल की अवधि में नए रोजगार पैदा होने की दर में 84 फीसदी की गिरावट दर्ज की है।
इसके आंकड़े बताते हैं कि 2009-10 में देश में कुल 8 लाख 70 हजार नए रोजगार पैदा हुए थे, जबकि 2016 में महज एक लाख 35 हजार नए रोजगार सृजित हुए। नौजवानों के लिए 2010 में जितनी संख्या में नई नौकरियां सामने आ रही थीं, अब उनका सिर्फ सातवां हिस्सा ही रोजगार बाजार मुहैया करा पा रहा है। ऊपर से आईटी जैसे आधुनिक सेक्टर की खस्ता हालत ने समस्याओं को और बढ़ा दिया है, जहां शीर्ष 5-6 कंपनियों ने करीब 56 हजार लोगों की छंटनी हाल के दौर में की है। जिस देश में युवाओं की 60 फीसद आबादी हो, वहां रोजगारों को लेकर मारामारी स्वाभाविक है लेकिन दिक्कत तब बढ़ जाती है, जब लाखों युवा कायदे की ट्रेनिंग के अभाव में खाली हाथ बैठे हों।
यह विडंबना ही है कि जिस युवा आबादी को देश की सबसे बड़ी पूंजी माना जाता है, उन 15 से 29 साल के युवाओं में 30 फीसदी के पास कोई काम-धंधा इसलिए नहीं है क्योंकि उनमें पास किसी तरह की ट्रेनिंग या स्किल नहीं है। कई उद्योग-धंधे तो अक्सर इसकी शिकायत करते हैं कि उन्हें ट्रेंड या स्किल्ड युवा या तो मिल नहीं रहे हैं या फिर डिग्री-डिप्लोमा लेकर जो युवा उनके पास आ रहे हैं, उनमें पर्याप्त क्षमता नहीं होती। यह देखते हुए कि इधर देश में जब पढ़ लिखकर रोजगार की इच्छा करने वाले युवाओं की संख्या सालाना 2.23 फीसद की दर से बढ़ रही है, नए रोजगारों का अभाव, स्किल की कमी और छंटनी जैसी समस्याएं देश के रोजगार सेक्टर में भारी असंतुलन और दबाव पैदा कर सकती हैं।
इस तरह यह भी कहा जा सकता है कि देश अब रोजगारविहीन विकास वाले दौर में है। भारत जैसे बेशुमार आबादी वाले देश के लिए ऐसा विकास काफी बड़े संकट पैदा कर सकता है। कुछ आर्थिक संगठनों का यह मत भी है कि रोजगार का यह संकट निकट भविष्य में भी बना रहेगा। जैसे एक संस्था- क्रिसिल ने कहा था कि अगले कुछ वर्ष भारतीय रोजगार परिदृश्य के लिए कई मुश्किलों से भरे हैं। आने वाले वर्षो में हो सकता है कि देश के करीब सवा करोड़ युवा अपनी नौकरियां छोड़कर खेतीबाड़ी या गांव-कस्बों में अपने पुश्तैनी व्यवसायों की तरफ मुड़ जाएं।
ऐसे लोगों का जीवन आसान नहीं होगा क्योंकि लगातार बंटवारे के चलते खेत पहले ही काफी छोटे हो गए हैं और पुश्तैनी व्यवसायों में इतनी कमाई नहीं रही है कि ठीक से जीवनयापन भी हो सके। नौकरियां छोड़ने की वजह यह हो सकती है कि इस दौरान विभिन्न कंपनियों को मिलने वाले काम की दर में गिरावट आ जाए और फैक्टियों पर ताला पड़ जाए। पर इधर, कुछ नई तब्दीलियां नौकरी जाने की वजह बन रही हैं। खास तौर से नए किस्म के कामधंधों में यह खतरनाक प्रवृत्ति कायम हो रही है। ऐसे क्षेत्रों में आईटी, बैंकिंग और ई-कॉमर्स से जुड़ा कामकाज है, जिन्हें असल में देश में नए रोजगारों की बहार लाने वाले सेक्टरों के रूप में देखा गया था। पहली तब्दीली तो देश के आईटी सेक्टर में हुई है।
अमेरिका में ट्रंप प्रशासन की संरक्षणवादी नीतियों के चलते आईटी कंपनियों और बीपीओ का कामकाज सिकुड़ गया है, जिस वजह से देश के इंजीनियरिंग कॉलेजों से हर साल निकलने वाले लाखों नौजवानों को अपना भविष्य अंधकारमय लगने लगा है। अमेरिका में नौकरी के वास्ते दिए जाने वाले एच-1बी वीजा में कटौती के प्रयास अंतत: हमारे देश के नौजवानों पर भारी पड़े हैं। यही नहीं, अमेरिका-यूरोप से इन सेक्टरों में देसी आईटी कंपनियों को मिलने वाले कामकाम में कमी आई है जिस कारण यहां भी किसी न किसी बहाने तेजी से छंटनी हो रही है। पिछले कुछ ही अरसे में करीब 6 शीर्ष आईटी कंपनियों में से 56 हजार युवाओं का नौकरी गंवा देना इसका सबसे प्रमुख उदाहरण है।
भले ही ये कंपनियां इतनी बड़ी छंटनी को नियमित प्रक्रिया का हिस्सा बताएं, पर सच तो यह है कि जिन सेक्टरों पर रोजगार सृजन का दारोमदार था, अब उन्हीं पर छंटनी का सबसे ज्यादा दबाव है। बैंकिंग और ई-कॉमर्स भी इनमें शामिल हैं। इन क्षेत्रों में नौकरियों पर लटकी तलवार के पीछे दो-तीन कारण प्रमुख हैं। पहला कारण तो यह है कि अब ज्यादातर निजी कंपनियां कम पूंजी लगाकर ज्यादा कमाई वाले बिजनेस मॉडल पर ध्यान लगा रही हैं। ई-कॉमर्स का जो बिजनेस मॉडल है, उसमें लगभग यही दृश्य दिखाई देता है कि वहां गिनेचुने कर्मचारियों के बल पर हजारों करोड़ रुपये कमाए जा रहे हैं। यही नहीं, जिन बैंकों और कारखानों में पहले जो कामकाम प्रशिक्षित श्रमिक और कर्मचारी करते थे, वहां भी कृत्रिम बुद्धिमता से लैस मशीनों और रोबोट से काम लिया जा रहा है।
यही वजह है कि विकास दर में बढ़ोतरी के बाद भी रोजगार की दर में गिरावट दर्ज की जा रही है। निजी कंपनियों में रोजगार की इस गिरावट का असर सरकारी नौकरियों पर बढ़ते दबाव के रूप में दिख रहा है। पर सरकारी नौकरियों के मामले में देश का क्या हाल है, इसकी झलक मिलने वाले आवेदनों के रूप में मिल जाती है। ज्यादातर सरकारी नौकरियों में एक-एक पद के लिए हजारों अभ्यर्थी आवेदन भरते हैं और मांगी गई योग्यता से कई गुना ज्यादा योग्यता व डिग्री वाले युवा उनके लिए आवेदन देते समय यह उम्मीद लगाते हैं कि काश, यह नौकरी उन्हें ही मिले। आबादी बढ़ने के साथ रोजगार का बाजार सिकुड़ने लगा है। इससे युवाओं के बेरोजगार रह जाने का संकट मंडरा रहा है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)