मुझे नहीं लगता कि मैं महात्मा हूंः महात्मा गांधी
इस महात्मा की पदवी ने मुझे बड़ा कष्ट पहुंचाया है, और मुझे एक क्षण भी ऐसा याद नहीं जब इसने मुझे गुदगुदाया हो।
नई दिल्ली। करीब 200 साल तक भारत पर राज करने वाले अंग्रेजों की गुलामी से भारत को आजाद कराने वाले मोहनदास करमचन्द गांधी का नाम जब भी जुबां पर आता है तो उनके नाम के आगे महात्मा खुद-ब-खुद लग जाता है। लेकिन आपको यह जानकर हैरत होगी कि महात्मा गांधी खुद को महात्मा नहीं मानते थे। समूचे विश्व को सत्य और अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले महात्मा गांधी की स्मृतियों में झांक कर देखा जाए तो उनके बारे में कई ऐसी बातें हैं, जिनसे हम आज भी अंजान हैं। महात्मा गांधी की ऐसी स्मृतियों में से ही एक खुद उनके द्वारा लिखा लेख है ''महात्मा नहीं''। अगर आपके मन में कौतुहल पैदा हो रहा है कि महात्मा गांधी खुद को महात्मा क्यों नहीं कहते थे, तो ये कौतुहल इस लेख के जरिये शांत हो जाएगी।
पढ़िए खुद बापू की जुबानी...
मुझे नहीं लगता कि मैं महात्मा हूं। लेकिन मैं यह अवश्य जानता हूं कि मैं ईश्वर के सर्वाधिक दीन-विनीत प्राणियों में से एक हूं। इस महात्मा की पदवी ने मुझे बड़ा कष्ट पहुंचाया है, और मुझे एक क्षण भी ऐसा याद नहीं जब इसने मुझे गुदगुदाया हो।
मेरी महात्मा की पदवी व्यर्थ है। यह मेरे बाह्य कार्यकलाप के कारण है, मेरी राजनीति के कारण है जो मेरा लघुतम पक्ष है और इसलिए, क्षणजीवी भी है। मेरा वास्तविक पक्ष है सत्य और अहिंसा के प्रति मेरा आग्रह, और इसी का महत्व स्थायी है। यह पक्ष चाहे जितना छोटा हो पर इसकी उपेक्षा नहीं करनी है। यही मेरा सर्वस्व है।
मुझे मेरी असफलताएं और मोहभंग भी प्यारे हैं, चूंकि ये भी तो सफलता की सीढ़ियां हैं। दुनिया बहुत कम जानती है कि मेरी तथाकथित महानता किस कदर मेरे मूक, निष्ठावान, योग्य और शुद्ध कार्यकर्ताओं एवं पुरुषों के अनवरत कठोर परिश्रम पर और नीरस कामों में भी उनकी लगन पर आश्रित है।
मेरे लिए सत्य 'महात्मापन' से कहीं अधिक प्रिय है। 'महात्मापन' तो मुझ पर सिर्फ एक बोझ है। यह अपनी सीमाओं और अकिंचनता का बोध ही है जिसने मुझे 'महात्मापन' के अत्याचारी स्वरूप से बचाये रखा है।